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गुरुवार, 5 नवंबर 2015

विचारधारा की असहिष्णुता

विचारधारा की असहिष्णुता
05/11/2015, नई दिल्ली। पिछले कुछ दिनों से बाहरी दुनिया को देश की तस्वीर ऐसी दिखाई जा रही है जैसे कि आपातकाल लागू कर दिया गया है या अराजकता की स्थिति हो गई है। साहित्यकारों, फिल्मकारों, वैज्ञानिकों और कलाकारों द्वारा सम्मान वापसी करना और देश की कुछ प्रसिद्ध हस्तियों द्वारा सामाजिक परिस्थिति को खराब बताकर ऐसा किया जा रहा है। ऐसा करने के पीछे कुछ तो वजह होगी और उन वजहों में कितनी सच्चाई है इसे जानने की कोशिश करना आज सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।

शनिवार, 5 सितंबर 2015

यूँ मुलायम का जाना...

यूँ मुलायम का जाना...
04 /09/2015 : नयी दिल्ली। बिहार चुनाव के ठीक पहले समाजवादी पार्टी द्वारा बिहार विधान सभा चुनाव अकेले लड़ने का ऐलान राजनीतिक गलियारे में किसी अचरज के तौर पर नहीं आई। सीट बंटवारे को लेकर नाराज चल रही मुलायम सिंह यादव की ये पार्टी बिहार की राजनीति में कोई बड़ा दबदबा नहीं रखती। जनता परिवार से सपा का अलग होना मोदी-मैजिक को चुनौती देने के विपक्ष के एकीकृत प्रयासों को धक्के के तौर पर देखा जा रहा है। अब से तक़रीबन चार  महीने पहले बड़े ही धूम-धाम से जनता परिवार के एका की घोषणा की गयी थी। मुलायम सिंह यादव को इस परिवार का सर्वमान्य मुखिया घोषित किया गया था। इस परिवार में समाजवादी विचारधारा के वे दल शामिल हुए थे जो मोदी-मैजिक के कारण अपनी अस्तित्व खोने के कगार पर है। मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी, नीतीश कुमार नीत जेडी-यू, चारा घोटाला में सजायाफ्ता लालू यादव की राजद, एच डी देवगौड़ा की जेडी-एस, शिक्षक भर्ती घोटाला में सजा काट रहे ओम प्रकाश चौटाला की आईएनएलडी और पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय चंद्रशेखर की नेतृत्वविहीन समाजवादी जनता पार्टी सहित इन छह पार्टियों का विलय होना तय हुआ था। लेकिन इसकी घोषणा के बाद ही समाजवादी पार्टी में भारी अंतर्विरोध देखने को मिला और रामगोपाल यादव जैसे कई नेता इस मामले में मुखर दिखाई पड़े। तभी से इस विलय को लेकर असमंजस की स्थिति बनी हुयी थी। परिणति सीट बंटवारे में सिर्फ पांच सीट मिलने को लेकर उपजी नाराजगी के रूप में हुयी। समाजवादी पार्टी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर अकेले बिहार विधान सभा चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया। साल 2010 के बिहार विधान सभा चुनाव में महज 0.55 फीसदी वोट पाने वाली सपा राज्य में कोई बड़ा उलटफेर करेगी ऐसा तो संभव नहीं पर एक सन्देश साफ़ तौर पर जाएगा जो मोदी-विरोधियों के हित में नहीं होगा। कल लालू यादव और शरद यादव सपा प्रमुख को मनाने उनके घर पर पहुंचे और करीब दो घंटों तक चली मुलाकात बेनतीजा रही।
मुलायम सिंह यादव का ये यू-टर्न पहला तो नहीं है लेकिन इसके पीछे कोई कारण है या मजबूरी? पहले हमें मुलायम को समझना होगा कि अपने साथियों को धोखा देने की उनकी ये आदत पुरानी है। सबसे पहले 1989 में जब वीपी सिंह कांग्रेस से अलग हुए तो अपने मित्र चंद्रशेखर को छोड़कर मुलायम उनके साथ हो लिए। इसके बाद साल 1990 में जब वीपी सिंह की सरकार गिरी तो वापस चंद्रशेखर को प्रधानमंत्री के लिए समर्थन देते हुए उनके साथ हो लिए। बसपा के संस्थापक कांशीराम ने 1991 में लोकसभा चुनाव के दौरान मुलायम के समर्थन को स्वीकार किया जबकि वो खुद इटावा से जीतने की स्थिति में थे। फिर 1993 में उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में बीजेपी को सत्ता से दूर रखने के लिए बसपा ने मुलायम सिंह के साथ गठजोड़ कर उन्हें मुख्यमंत्री के तौर पर आगे किया। लेकिन जब 1995 में राजनैतिक वजहों से भाजपा के साथ मिलकर जब मायावती को मुख्यमंत्री बनाने की कोशिश कांशीराम ने की तो मुलायम के आदमियों ने गेस्ट हाउस में मायावती को बंद कर उनके साथ मारपीट किया। 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार गिरने के बाद जब सोनिया गांधी को मुलायम सिंह से पॉजिटिव वाइब मिला और वो सरकार बनाने का दावा पेश करने राष्ट्रपति भवन पहुँच गयी कि मुलायम उनका समर्थन तो करेंगे हीं। चाँद घंटो में पलटी मारते हुए मुलायम ने कहा कि वो किसी विदेशी मूल के नागरिक का प्रधानमंत्री के तौर पर समर्थन नहीं कर सकते। साल 2002 में जब एनडीए ने डॉ ऐपीजे अब्दुल कलाम के नाम राष्ट्रपति के लिए प्रस्तावित किया तो मुलायम सिंह ने मुस्लिम वोटों के मद्देनजर पीपल्स फ्रंट को ठेंगा दिखाया और कलाम के नाम का समर्थन किया। लेफ्ट पार्टियां मुलायम से तक़रीबन सात बार धोखे का शिकार हुयी है और सबसे ताज़ा घटना साल 2008 में यूपीए द्वारा प्रस्तावित न्यूक्लियर डील के मुद्दे पर थर्ड फ्रंट को धता बताते हुए सरकार को समर्थन की है। साल 2012 में जब ममता बनर्जी राष्ट्रपति के तौर पर प्रणब मुख़र्जी के नाम पर सहमत नहीं थी तब मुलायम ने उनके साथ डॉ कलाम , मनमोहन सिंह और सोमनाथ चटर्जी के नाम का प्रस्ताव किया कि इनमे से किसी को राष्ट्रपति बनाया जाना चाहिए। अगले दिन यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी से मुलाकात के बाद मुलायम ने पलटी मारते हुए प्रणब मुख़र्जी के नाम पर अपनी मोहर लगायी और ममता को अपने राजनैतिक अपरिपक्व होने का एहसास कराया।  सबसे नया वाकया इस साल संसद के मानसून सत्र का है जब कांग्रेस के नेतृत्व में सभी विपक्षी दल विदेश मंत्री सुषमा स्वराज समेत अन्य भाजपा नेताओं के इस्तीफे पर अड़े हुए थे। तब मुलायम ने पीछे हटते हुए सरकार की संसद चलने देने की पेशकश का समर्थन किया जिसकी वजह से मजबूरन विपक्ष को संसद में जारी गतिरोध से पीछे हटना पड़ा।            
अब बात करते है जनता परिवार की। पिछले लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के कारण सपा को सिर्फ 5 सीट, जेडीयू को 2 सीट, राजद को 4 सीट, जेडीएस को 2 सीट, आईएनएलडी को 2 सीट आई है। जबकि साल 2009 के लोकसभा चुनाव में इन पार्टियों को क्रमशः 23, 20, 4 , 3 , 0 सीटें मिली थी। इस बात से ये साफ़ हो जाता है की ये सभी दल अपनी अस्तित्व को खतरे में महसूस कर रहे है। दूसरी बात ये है कि मोदी लहर को दिल्ली के अलावा किसी और राज्य में कोई चुनौती नही मिली है और तत्काल में ऐसा करने में कोई सक्षम नहीं दिख रहा है। फिर सभी पुराने कड़वाहटों को भूला कर एकजुट हुए जनता परिवार में ऐसी क्या बात हो गयी कि पहली परीक्षा के पहले हीं कुनबा बिखर गया?
सबसे पहला कारण तो सीट बंटवारे में केवल 5 सीट देने और सीट बंटवारे की प्रक्रिया में शामिल नहीं किया जाना बताया जा रहा है जिससे समाजवादी पार्टी अपने को अपमानित महसूस कर रही थी। दूसरी बात ये निकल कर सामने आ रही है कि नीतीश के कद को छोटा करने और अपने समधी लालू यादव की पार्टी को बिहार विधान सभा के सीट में बड़ा हिस्सा दिलाने के लिए ये किया गया है। तीसरी बात ये निकल कर आ रही है कि लालू-नीतीश के कांग्रेस के साथ गठबंधन से मुलायम चिढ़े हुए है। चौथी बात ये भी बताई जा रही है कि रामगोपाल यादव की दिल्ली में बीजेपी के शीर्ष नेताओं से मुलाकात के दौरान ये समझाया जाना कि बिहार में जब वो कांग्रेस से गठबंधन करेंगे तो क्या उत्तर प्रदेश में अपना मुस्लिम वोट भी शेयर करना पसंद करेंगे? सबसे अंत में जो बात समझ में आती है कि मुलायम सिंह यादव के खिलाफ आय से अधिक सम्पत्ति का मामला अभी भी ख़त्म नहीं हुआ है। पिछले दिनों मुलायम ने ये बयान भी दिया था कि पिछली सरकार ने सीबीआई का दुरूपयोग किया था और मोदी सरकार भी यही कर रही है।

अब वजह चाहे जो भी हो मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक कलाबाजियां कोई नयी बात नहीं रही है। ये अलग बात है कि जनता परिवार इस बार उनका नया शिकार बना है।

सोमवार, 31 अगस्त 2015

आरक्षण : जरुरत किसकी?

आरक्षण : जरुरत किसकी?
31/08/2015:नई दिल्ली। गुजरात से शुरू हुए पटेल समुदाय के आरक्षण आंदोलन ने लगभग पूरे देश को इसकी चपेट में ला दिया है। कल पाटीदार अनामत समिति के हार्दिक पटेल ने दिल्ली में कहा कि इस आंदोलन को देशव्यापी बनाया जाएगा और गुर्जर तथा कुर्मी समुदाय को भी इसमें शामिल किया जाएगा। आज पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बागपत जिले में जाट समुदाय ने जाट आरक्षण बचाओ महारैली में आंदोलन करने और पूरे देश में चक्का जाम करने की धमकी दी है। जाट नेताओ ने कहा कि अगर पटेल उनके आंदोलन में साथ देंगे तो बदले में वे भी उनके आंदोलन में शामिल होंगे। इन सभी बातों से एक ही सवाल खड़ा होता है कि आखिर आरक्षण की जरुरत किसको है और है भी तो क्यों?
इस सवाल का हल ढूंढने के लिए हमें संविधान निर्माताओं के उस विचार को समझना होगा जिसकी वजह से उन्होंने आरक्षण देने का प्रावधान किया था। 30 नवम्बर 1948 को संविधान सभा में श्री कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी ने डॉक्टर आम्बेडकर के सिर्फ बैकवर्ड क्लास को आरक्षण देने पर सवाल उठाते हुए कहा कि संविधान में कही भी इसे परिभाषित नहीं किया गया है। उन्होंने ये भी कहा की स्टेट ऑफ़ मुंबई ने इसे परिभाषित किया है जिसमे न सिर्फ अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति बल्कि अन्य जातियों को भी इसमें शामिल किया गया है जो आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक तौर पर पिछड़े है। इस बहस में उत्तर देते हुए डॉ आम्बेडकर ने कहा कि पिछड़े वर्गों का निर्धारण करने का अधिकार राज्य सरकारों के ऊपर छोड़ देना चाहिए। पिछड़े वर्गों का निर्धारण करने और आरक्षण देते समय हमें दो बातों को ध्यान में रखना होगा। पहला ये कि जिन समुदायों को हम आरक्षण देने जा रहे है क्या उनका सरकार और सरकारी नौकरियों में समुचित प्रतिनिधित्व अब तक नहीं हो पाया है? दूसरा ये की क्या उन्हें आरक्षण देने से सामान अवसर के सिद्धांत का उल्लंघन तो नहीं होगा। श्री एच एन कुंजरू ने इसे निश्चित समय सीमा(दस साल्) तक ही लागू करने का प्रावधान करने की सलाह दी।
इस बात से ये तो स्पष्ट है कि संविधान निर्माताओं की मंशा थी कि आरक्षण का लाभ सिर्फ उनको मिलना चाहिए जिनका समुचित प्रतिनिधित्व अब तक नहीं हो पाया है। लेकिन वोट बैंक पॉलिटिक्स के चक्कर में 10 साल के इस आरक्षण को समय समय पर विस्तार दिया गया ताकि वो इसके सहारे के आदि हो जाये और उनकी ये आदत बनी रहे और वो कभी आत्मनिर्भर नहीं हो पाये। साल 1989 में जब जनता दल की सरकार बनी तो इसे और वीभत्स रूप दिया गया और आम्बेडकर के उपरोक्त विचारों को कुचल दिया गया। कांग्रेस से अलग हुए वी पी सिंह ने कांग्रेस की इस पालिसी को और ही खतरनाक रूप देते हुए समाज में विभाजन की एक गाढ़ी लकीर खींची जिसे आजतक समाज झेल रहा है। तत्कालीन सरकार के इस कदम का परिणाम ये हुआ कि पूरे देश में अगड़े और पिछड़े के नाम पर आंदोलन शुरू हुआ। इस आंदोलन से पूरे देश में सैकड़ों जाने गयी और आर्थिक नुकसान की तो बात न ही करे तो बेहतर होगा। 

आज जो लोग आरक्षण का लाभ ले रहे है तथा जो इसके लिए मांग या फिर आंदोलन कर रहे है उन्हें कुछ सवालों के जवाब खुद तलाशने की जरुरत है। पहला सवाल ये है कि क्या वाकई में उनके समाज का सरकार और सरकारी नौकरियों में समुचित प्रतिनिधित्व नहीं हो पाया है? सवाल नंबर दो ये कि क्या उनके समाज को आरक्षण देने से कहीं ये सामाजिक ताना बाना (सोशल फैब्रिक) या कहें तो सामान अवसर के संवैधानिक वादे का अवसान तो नहीं हो जाएगा। अगर इन दोनों सवालों का जवाब अगर नहीं है तो उस समाज को आरक्षण की सख्त जरुरत है। यदि इन सवालों के जवाब हाँ में हुए तो फिर उन्हें अपने इस आरक्षण या इसकी मांग को छोड़कर समाज की मुख्यधारा में शामिल होने की जरुरत है क्यूंकि आरक्षण का मूल उद्देश्य ही यही है। सोंचिये और तलाशिये इन दोनों सवालों के जवाब ………किसी और से नहीं बल्कि खुद से।         

शुक्रवार, 28 अगस्त 2015

(Bihar Election-An Perspective) बिहार चुनाव के परिदृश्य

बिहार चुनाव के परिदृश्य
28 अगस्त। बिहार विधान सभा चुनाव इस बार काफी रोचक होता जा रहा है। आठ साल बीजेपी के साथ सरकार चलाने के बाद नीतीश कुमार इस बार लालू यादव और कांग्रेस के साथ कंधा से कंधा मिलाकर चलने को तैयार है। समाजवादी पार्टी, जद-यू और राजद समेत 6 पार्टियों के इस गठजोड़ का पहले विलय होना तय हुआ था लेकिन विलय पर आपसी सहमति नही बन पाने के कारण महागठबंधन का नाम दिया गया। वहीं बीजेपी अपने एनडीए पार्टनर लोजपा और रालोसपा के अलावे जीतन राम मांझी की हिंदुस्तान आवाम मोर्चा के साथ मैदान में है।
हाल के दिनों में बिहार के मुख्यमंत्री की दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल से बढ़ती हुई करीबी राजनीतिक हलको में चर्चा का विषय बनी हुई है। इस करीबी के कई मायने निकाले जा सकते है। पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी ने बिहार में सभी सीटों पर चुनाव लड़ा था और परिणाम जगजाहिर है। लोकसभा चुनाव 2014 में केजरीवाल ने नीतीश कुमार और लालू यादव पर जम कर हमला बोला था और बिहार की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार ठहराया था। पिछले एक साल में ऐसा क्या करिश्मा हुआ कि केजरीवाल के लिए वही नीतीश कुमार विकास पुरूष लगने लगे है?

इस सवाल के कई मायने और मतलब हो सकते है, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आज की तारिख में दोनो की राजनीती एक ही मुद्दे पर टिकी हुई है और वो है मोदी विरोध और अल्पसंख्यको का मसीहा बनने का। लोकसभा चुनाव के पहले से ही नीतीश मोदी के मुखर विरोधी रहे हैं और बीजेपी से गठबंधन भी इसी वजह से तोड़ा था। बिहार के मुख्यमंत्री को ये डर था कि अगर मोदी को नेता स्वीकारते है तो वो अल्पसंख्यक वोट बैंक से हाथ धो बैठेंगे और दूसरा ये कि वो खुद को भावी प्रधानमंत्री के तौर पर देख रहे थे। खुद को बदलाव और स्वच्छ राजनीती का चैंपियन मानने वाले केजरीवाल की पूरी राजनीती भाजपा और कांग्रेस के विरोध से शुरू हुई लेकिन बाद में वो कांग्रेस के साथ 49 दिन की सरकार बैठे। इस साल के दिल्ली विधानसभा चुनाव में केजरीवाल का मुख्य मुद्दा बीजेपी का विरोध रहा। दिल्ली में सरकार बनने के बाद से ही मुख्यमंत्री केजरीवाल लगभग हर मुद्दे पर केंद्र से टकराव का रूख अख्तियार किये हुए है। शायद यही वो वजहें है जो दोनो नेताओं को करीब ले आइ है। केजरीवाल की चुनावी सफलता में अहम योगदान प्रवासी बिहारी वोटरों का रहा है और नीतीश को ये लगता है कि आप के मुखिया के जरिये उन वोटरों और उनके घर-परिवार और रिश्तेदारों में पैठ बनाकर बिहार का किला फतह कर लेंगे। परिणाम तो आने वाला वक़्त हीं तय करेगा। 

गुरुवार, 16 अप्रैल 2015

जनता परिवार विलय - जनता के लिए कितना?

नई दिल्ली - जनता परिवार के 6 दलों द्वारा विलय की घोषणा के बाद तीसरे मोर्चे की सुगबुगाहट फिर से शुरू हो गयी है।  मुलायम सिंह यादव की अगुवाई में समाजवादी पार्टी, जनता दल- सेक्युलर, जनता दल- यूनाइटेड, राष्ट्रीय जनता दल , समाजवादी जनता पार्टी और इंडियन नेशनल लोक दल ने अपने विलय की घोषणा करते हुए भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के खिलाफ नयी जंग छेड़ने का ऐलान किया।  मुलायम सिंह यादव ने कहा कि  इस केंद्र सरकार ने जनता के लिए कुछ नहीं किया है।  लालू यादव ने कहा कि हम पूरे देश का दौरा करेंगे और जनता से सीधे संवाद करेंगे।  इन सब के बीच असली सवाल यह है कि क्या जनता परिवार वाकई में जनता के लिए एकजुट हुई है ?
अगर हम सभी बातों और परिस्थितियों पर गौर करे तो ये महसूस होता है कि ये एकता जनता के लिए नहीं बल्कि अपने वजूद को बनाये रखने के लिए इन पार्टियों की आखिरी कोशिश है।  लोकसभा चुनाव 2014 के बाद  सभी दलों की हालत लगभग एक जैसी है।  उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी 2009 के अपने 23 सीटों के आंकड़े से 5 पर सिमट गई और जदयू अपने 20  सीटो की तुलना में 2 पर आ गयी। इन हालात में सभी क्षत्रपों के लिए अपने वजूद को बचाये रखने की जरुरत थी जिसका परिणाम इस विलय के रूप में सामने आया है। 
इन दलों के विलय के आगामी चुनावों में जो भी नतीजे हों लेकिन संसद के भीतर खासकर राज्यसभा में इससे सत्ता पक्ष की मुश्किलें बढ़ेगी। राज्यसभा में सीटों  की कमी से जूझ रहे एनडीए के लिए यह गठजोड़ और मुश्किलें पैदा करेगा। इन छह में से पांच दलों की राज्यसभा में मौजूदगी है और उनकी कुल संख्या 30 है। राज्यसभा में एनडीए के पास कुल 64 सीटें  है जिसमे बीजेपी की अकेले 47 सीटें हैं। जबकि प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस की अकेले 68 सीटें हैं। भूमि अधिग्रहण विधेयक समेत कई मुद्दों पर जनता परिवार से जुड़े दल हाल में एकसाथ नजर आए हैं और विलय के बाद यह रुख आगे भी कायम रहेगा।  विशेष परिस्थितियों में सरकार के लिए छोटे-मोटे दलों को अपनी ओर लेना आसान होता है लेकिन एक हो चुके जनता परिवार का सहयोग लेने में मुश्किल होगी।
इस परिवार की सबसे पहली चुनौती अक्टूबर 2015 में होने वाला बिहार विधान सभा चुनाव होगा।  लोकसभा चुनाव में राजद और जदयू का मिलाजुला वोट शेयर 36 प्रतिशत का था, जो की भाजपा के 30 प्रतिशत से कहीं ज्यादा है, और लालू यादव और नितीश कुमार इसी बात पर इतराते फिर रहे है की एकबार फिर से सत्ता उनके हाथ ही आयेगी। गौरतलब है कि लालू और नितीश आज जहाँ भी हैं उसमे एक बड़ी वजह एक दूसरे का विरोध रहा है।  अब विलय के पश्चात सबसे बड़ा प्रश्न ये है कि इस दोनों के परस्पर विरोधी वोट बैंक जिसकी वे राजनीती करते आये है, का विलय हो पायेगा?
लालू का आधार वोट अगर यादव और अगड़े मुसलमानों में रहा है तो नीतीश कुमार का अतिपिछड़ा, महादलित, पिछड़े मुसलमान और सवर्ण में। लोकसभा चुनावों में भाजपा अतिपिछड़ा वोटों में सेंध लगाने में कामयाब रही थी। वहीं मुस्लिम मतदाताओं का वोट कम पडा़ था। दोनों के साथ आने से न केवल चुनाव में पिछड़ा गोलबंदी के बल्कि अल्पसंख्यक वोटरों के उत्साह से वोट करने के आसार भी बढ़ गए हैं।
भाजपा की कोशिश यह भी है कि वह जीतनराम मांझी के प्रकरण को महादलित अपमान करार देकर जदयू के महादलित वोट में सेंध लगाए। माना जा रहा हैं कि मांझी सभी 243 सीटों पर उम्मीदवार देकर जदयू के वोट में सेंध लगाने की रणनीति अपनाएंगे। इसका फायदा भाजपा को होगा।

वैसे समाजवादी पार्टी के अंदरूनी सूत्र बताते है कि कई बड़े सपाई नेता इस विलय से खुश नहीं है और रामगोपाल यादव की गैरमौजूदगी इस बात को पुख्ता करती है।  सपाई को सपा के पहचान की चिंता है और सपाई छह रहे है की झंडा, निशान और नाम पर सपा का ही वर्चस्व रहे।  सपाइयों का तर्क ये है की नए परिवार से उत्तर प्रदेश को कोई फायदा नहीं होगा और प्रतिक चिन्ह बदल गए तो कार्यकर्ताओं को जोड़ना मुश्किल होगा।