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शुक्रवार, 11 दिसंबर 2015

भ्रष्टाचार की हद

भ्रष्टाचार की हद
11 दिसम्बर 2015, नई दिल्ली। देश में भ्रष्टाचार कम होने का नाम नही ले रही है। मंगलवार 08 दिसंबर को दिल्ली सरकार के अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं अल्पसंख्यक कल्याण विभाग के मुख्य सचिव को उनके निजी सहायक के साथ सीबीआई ने 2.2 लाख रूपये घूस लेते हुए रंगे हाथों गिरफ्तार किया। अक्टूबर महीने में सीबीआई ने दिल्ली सरकार के खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री के खिलाफ घूसखोरी का मामला दर्ज किया था। कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष को दिल्ली की एक निचली अदालत ने हेराल्ड हाउस केस के मामले में व्यक्तिगत तौर पर पेश होने को कहा है क्योंकि उनपर कांग्रेस पार्टी के मुखपत्र नेशनल हेराल्ड की संपति को एक कंपनी को बेचने का आरोप है। केरल के मुख्यमंत्री पर घूसलेने और व्याभिचार में लिप्त होने की जांच न्यायिक आयोग कर रहा है। कल एक अखबार के मुताबिक धान की खरीद में यूपीए-2 के शासनकाल में बड़ा घोटाला हुआ है जो तकरीबन 40 हजार करोड़ का है। मैं कांग्रेस नीत् यूपीए के शासन काल में हुए घोटालों पर नही जा रहा हूँ, लेकिन सवाल ये उठता है कि भ्रष्टाचार का सिलसिला कब थमेगा?

मंगलवार, 20 अक्टूबर 2015

साहित्यकारों का सम्मान

साहित्यकारों का सम्मान
20/10/2015, नई दिल्ली। देश में आजकल साहित्यकारों द्वारा सम्मान लौटाने का चलन चल पड़ा है। अबतक 28 साहित्यकारों ने सम्मान लौटाया है। उन्हे लगता है कि देश में असहिष्णुता बढ़ रही है और देश का सामाजिक ताना-बाना खतरे में है। ऐसा उन्हे इसलिए लगता है क्योंकि केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार है। हाल के दिनों में महाराष्ट्र और कर्नाटक में साहित्यकारों पर हमले हुए और उत्तर प्रदेश के दादरी में एक व्यक्ति की भीड़ द्वारा पीट-पीट कर हत्या कर दी गई। देश के उन साहित्यकारों को लगता है कि केंद्र की सरकार इन घटनाओं के लिए जिम्मेदार है।
देश के साहित्यकारों को सम्मानित करने का काम वर्ष 1955 से साहित्य अकादमी करती रही है। साहित्य अकादमी की स्थापना 12 मार्च 1954 को तत्कालीन केंद्र सरकार द्वारा साहित्य और भाषा के विकास के उद्देश्य से की गई थी। 24 भाषाओं में 24 पुरस्कार हर साल साहित्य अकादमी द्वारा देश भर के साहित्यकारों को दिया जाता है। पुरस्कार देने के लिए अकादमी के अध्यक्ष द्वारा हर भाषा के लिए तीन सदस्यों की एक समिति गठित की जाती है जो इस बात का फैसला करती है कि किसे सम्मान दिया जाना चाहिए। 1955 से अब तक एक हजार से अधिक साहित्यकारों को ये सम्मान अकादमी द्वारा दिया जा चुका है, लेकिन लौटाया सिर्फ 28 साहित्यकारों ने है।

सोमवार, 28 सितंबर 2015

बिहार - किसकी सरकार?

बिहार - किसकी सरकार?
28/09/2015, नई दिल्ली। बिहार विधानसभा चुनाव की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है और मैदान में उतरे दो बड़े गठबंधन एनडीए और महागठबंधन दोनो ही सरकार बनाने का दावा कर रहें है। एनडीए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विकास के एजेंडे पर वोट मांग रही है तो वहीं महागठबंधन बिहार में 10 साल तक सत्ता में रहे नीतीश कुमार के द्वारा किये गये विकास कार्य के आधार पर वोट मांग रहा है। सवाल ये है कि क्या सचमुच बिहार में विकास के नाम पर वोट डाले जायेंगे?
बिहार में इस चुनाव के जरिये 16 वी बार विधानसभा चुने जाने के लिये वोट डाले जायेंगे। अब तक 15 बार बिहार में विधानसभा के लिए मतदान हो चुका है। साल 2010 के चुनाव में जदयू के 20.46%, बीजेपी को 15.64%, राजद को 23.45%, लोजपा को 11.09% और कांग्रेस को 6.09% वोट मिले थे। इसके अलावा बसपा को 4.17% और निर्दलिय उम्मिदवारों को 8.76% वोट मिले थे। वर्तमान में बिहार विधानसभा में कुल 243 सीटों में से 203 सीटें अनारक्षित, 38 सीटें अनुसूचित जाति और 2 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिये है। 31 जुलाई 2015 के वोटरलिस्ट के मुताबिक इसबार के चुनाव में कुल 6,68,26,658 (6 करोड़ 68 लाख 26 हजार 658) मतदाता 62779 मतदान केंद्रों पर अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे। साल 2010 में हुए चुनाव में बिहार का राजनीतिक ध्रुविकरण अब से अलग था। क्या नई परिस्थितियों में तमाम पार्टीयों के वोट प्रतिशत ऐसे ही रहेंगे?
लॉ फैकल्टी, दिल्ली विश्वविद्यालय में मेरा पहला दिन था। जब मैं क्लास के बाद लॉन में बैठा अपने कुछ सहपाठियों से बातचीत कर रहा था तो परिचय के दौरान मेरी जाति जानने की उत्सुकता सबमें थी। मैं तब दिल्ली नया-नया आया था और इस बात से अनभिज्ञ था कि मेरी जाति ही यहां मेरी मित्र मंडली तय करेगी। खैर जातिवाद के भयावह चेहरे से यहां छात्रसंघ के चुनावों में सामना हुआ जब प्रवासी बिहारियों में भी जातिगत आधार पर उम्मीदवार चुने गये। वो तो छात्रसंघ के चुनाव थे लेकिन देश में जितने भी चुनाव होते हैं उनमें जातिवाद, धर्म और क्षेत्रवाद प्रमुख मुद्दे होते हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में एक और मुद्दा जुड़ा और वो है विकास का। लेकिन बिहार में विकास के नाम पर वोट डाले जायेंगे ये  कहना बेमानी होगा। जहां से पूरे देश में सर्वाधिक पलायन होता है उस राज्य में भी जातिवाद समाज की गहराईयों में बसती है। बिहार में करीब अगड़ी जाति के 15% वोट है जिसमें करीब ब्राह्मण 5%, राजपूत 3%, भूमिहार 6% और कायस्थ 1% है। ओबीसी में 14.2% यादव, कुर्मी 4%, और करीब 3% वैश्य जाति का वोट है। अति पिछड़ी जाति के 30 प्रतिशत में कोयरी 8%, कुशवाहा 6% और तेली 3.2% शामिल है। दलित और महादलित मिलाकर 16% वोट है वहीं 16.9% मुसलमान वोटर है। पिछले विधानसभा चुनाव में कुर्मी, अतिपिछड़ा और महादलित वोट में से सबसे बड़ा हिस्सा नीतीश कुमार की वजह से जदयू को मिले थे। अगड़ी जातियों के वोटों में से कुछ हिस्सा राजद, कुछ जदयू लेकिन सबसे ज्यादा बीजेपी को मिला था। परिस्थितियां इसबार बिल्कुल उलटी है। इसबार जीतनराम मांझी की वजह से महादलित वोट का एक बड़ा हिस्सा एनडीए के पक्ष में खड़ा दिख रहा है। कुर्मी वोटों को छोड़कर पिछड़ा वर्ग का वैश्य समाज का वोट इसबार जदयू के हाथ से निकलता हुआ दिख रहा है। पिछले लोकसभा चुनाव में यादव वोटबैंक का बंटवारा हुआ था और राजद के अलावा एनडीए को भी यादव वोटों का एक बड़ा हिस्सा मिला था। इसबार भी कमोबेश यही स्थिति दिख रही है। मुस्लिम वोट जो अब तक राजद के खाते में जाता था, इसबार हैदराबादी एमआईएम के आने से बंटती हुई नजर आ रही है। सीमांचल में ओवैसी द्वारा चुनाव लड़ने की घोषणा के बाद राजद में घबराहट है। लालू यादव के दबाव में अनंत सिंह और सुनील पांडे को जदयू से निकालकर नीतीश कुमार भूमिहार वोट से हाथ धो बैठे है जिसके वजह से ये निश्चित रूप से बीजेपी को मिलने जा रही है। कायस्थ और वैश्य परंपरागत रूप से बीजेपी के वोटर रहें है और इस में कोई फर्क नही आया है। लोजपा की वजह से दलितवर्ग में खासकर पासवान  और रालोसपा की वजह से कुशवाहा वोट एनडीए की झोली में आते दिख रहें है। मतलब इसबार जदयू चुनावी गणित में बीजेपी नीत् एनडीए से पिछड़ती दिखाई दे रही है। लेकिन अंतिम परिणाम तो चुनाव बाद ही पता चलेगा।
कुछ भी हो इस बार बिहार में करीब 4.12 प्रतिशत यानी साढ़े सताईस लाख वोटर ऐसे हैं जो अपने मताधिकार का पहली बार प्रयोग करेंगे। करीब 10.5 प्रतिशत यानि 7012124 वोटर 18 से 25 साल की उम्र के हैं और यह समूह किसी भी पार्टी के लिये महत्वपूर्ण है। बिहार का युवा अगर यह ठान ले कि बिहार को बदलना है तो कोई ताकत उसे ऐसा करने से रोक नही सकती। बिहार के युवक और युवतियों जागो, बदलो अपनी किस्मत और बिहार को। 

गुरुवार, 17 सितंबर 2015

भारत और पकिस्तान – कितने करीब?

भारत और पकिस्तान – कितने करीब?
17/09/2015- नई दिल्ली। भारत में लोक सभा चुनाव 2014 में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी। मनोनीत् प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा पाकिस्तान समेत सभी पड़ोसी देशों को शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने का न्यौता देना पूरी दुनिया के लिये किसी आश्चर्य से कम नही था। इससे पहले भारत के किसी मनोनीत प्रधानमंत्री ने ऐसा नही किया था। इस निमंत्रण को पड़ोसी देशों के साथ पूर्ववर्ती सरकार की नीति से अलग हटकर संबंध सुधारने की दिशा में एक नये प्रयास के तौर पर देखा गया। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ आये भी और एक उम्मीद जगी कि अब शायद पड़ोसी के साथ संबंध बेहतर होंगे। आज करीब एक 15 महीनों के बाद संबंधो में बदलाव तो दिखा है, लेकिन अपेक्षित और सकारात्मक नही है। कई पहलू है इस बदलाव के और मोदी सरकार ने शायद ये अनुमान पहले लगा लिया था। पिछले सवा साल में भारत-पाक सीमा पर सीजफायर उल्लंघन की धटनायें पहले से ज्यादा हुई है। आतंकवादियों के घुसपैठ की घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है। सीमा पर तनाव घटने के बजाय बढ़ गया है। दोनो देश के तरफ से भड़काऊ बयान लगातार दिये जा रहें है। दोनो देशों के बीच विदेश सचिव और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्तर की बातचीत रद्द की जा चुकी है और भविष्य में कब बातचीत होगी मालूम नही।

पाक प्रधानमंत्री नवाज शरीफ द्वारा मोदी सरकार के शपथ ग्रहण में शामिल होने के निमंत्रण स्वीकारने के बाद ये उम्मीद जगी कि रिश्ते शायद अब सही राह पर चल पड़े है। 27 मई 2014 को मोदी और शरीफ की पहली मुलाकात दिल्ली के हैदराबाद हाउस में हुई। इस मुलाकात के दौरान भारतीय प्रधानमंत्री ने आतंकवाद और 26/11 की घटना के उठाया। मुलाकात से पहले पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने कहा कि वो शांति का संदेश लेकर आये हैं। स्वदेश लौटने के बाद नवाज शरीफ ने नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर कहा कि भारत में हुये बातचीत से वो बेहद संतुष्ट है। इसके बाद पाकिस्तान की तरफ से सीमा पर गोलीबारी, जो पहले छुटपुट होती थी, की घटनाओं में धीरे-धीरे बढ़ोतरी शुरू हुई। सितम्बर में विदेश सचिव स्तर की वार्ता से पहले कश्मिरी अलगाववादियों को पाकिस्तानी दूतावास द्वारा बातचीत के लिये अमंत्रित किया। इसपर कड़ा ऐतराज जताते हुये भारत ने ये वार्ता रद्द कर दी। सितंबर के महीने में ही पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने संयुक्त राष्ट्रसंघ में जब कश्मीर का मुद्दा उठाया तो भारतीय प्रधानमंत्री ने संयुक्त राष्ट्र संघ के सचिव के पास अपना विरोध दर्ज कराया। मोदी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में पड़ोसियों से सभी मुद्दे आपसी बातचीत के जरिये सुलझाने के प्रति अपनी प्रतिबध्दता जताई। लेकिन पहली बार हालात बिगड़ने का अंदाजा हुआ अक्तूबर में जब पाकिस्तान की ओर से की गई गोलीबारी में 5 भारतीय नागरिकों की मौत हुई। भारत सरकार तब फुर्ती दिखाते हुये बीएसएफ से बराबरी से जवाबी कार्रवाई करने का निर्देश जारी किया। इसके बाद नवंबर में काठमांडू में हुये सार्क सम्मेलन में दोनो प्रधानमंत्रियों की आपसी मुलाकात नही हुई। इसके बाद दोनो देशों के बीच कोई अधिकारिक बातचीत नही हुई। सीमा पर गोलीबारी और आतंकी घुसपैठ बदस्तूर जारी रहा। इस साल जुलाई के महीने में रूस के ऊफा में शंघाई कॉपरेशन आर्गनाइजेशन की बैठक के दौरान दोनो प्रधानमंत्रियों की मुलाकात हुई। दोनों बातचीत को फिर से शुरू करने के लिये राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्तर की मीटींग के लिये तैयार भी हुये। लेकिन ऐन मौके पर पाकिस्तान द्वारा फिर पुरानी गलती दुहराई गई। कश्मिरी कट्टरपंथियों और अलगाववादियों को फिर बातचीत से पहले पाकिस्तान द्वारा निमंत्रित किया गया जिसपर भारत ने फिर से ऐतराज जताया। भारत की ओर से कहा गया कि अलगाववादी इस मुद्दे में कोई आधिकारिक हैसियत नही रखते और उनको इसमें शामिल करना शिमला समझौते का उल्लंघन है। भारत की ओर से स्पष्ट किया गया कि बातचीत सिर्फ दोनों पक्षों में हो सकती है और अगर पाकिस्तान इसके लिये तैयार हो तभी वार्ता होगी। नतीजतन पाकिस्तान की ओर से वार्ता रद्द करने की घोषणा की गयी। दरअसल जब भी भारत-पाक का राजनैतिक नेतृत्व संबंधो को सुधारने की ओर अग्रसर होता है पाकिस्तान की सेना अपने को असहज महसूस करने लगती है। तीन आधिकारिक और एक गैर- आधिकारिक युद्ध हारने के बाद पाक-सेना का नेतृत्व इस बात को समझता है कि भारत से सीधे तौर पर पार नही पाया जा सकता। अलगाववादियों को बढ़ावा देना, परोक्ष रूप से आतंकवाद को भारतीय सीमा में भेजकर हमला कराने जैसी स्थितियों से ही भारत को परेशान किया जा सकता है। दूसरी ओर अहम बात यह है कि पाकिस्तानी सेना कभी भी लोकतांत्रिक सरकार का सत्तापलट कर शासन में आ जाती है जिससे बातचीत की पूरी प्रक्रिया बाधित हो जाती है। इस बार भी ऐसी खबरें आ रही है कि शायद पाकिस्तान में जल्द ही कोई बड़ा फेरबदल हो जाये। अब देखना ये होगा कि ऐसी परिस्थिति में भारत सरकार किस तरह का रूख अख्तियार करती है।