गुरुवार, 16 अप्रैल 2015

जनता परिवार विलय - जनता के लिए कितना?

नई दिल्ली - जनता परिवार के 6 दलों द्वारा विलय की घोषणा के बाद तीसरे मोर्चे की सुगबुगाहट फिर से शुरू हो गयी है।  मुलायम सिंह यादव की अगुवाई में समाजवादी पार्टी, जनता दल- सेक्युलर, जनता दल- यूनाइटेड, राष्ट्रीय जनता दल , समाजवादी जनता पार्टी और इंडियन नेशनल लोक दल ने अपने विलय की घोषणा करते हुए भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के खिलाफ नयी जंग छेड़ने का ऐलान किया।  मुलायम सिंह यादव ने कहा कि  इस केंद्र सरकार ने जनता के लिए कुछ नहीं किया है।  लालू यादव ने कहा कि हम पूरे देश का दौरा करेंगे और जनता से सीधे संवाद करेंगे।  इन सब के बीच असली सवाल यह है कि क्या जनता परिवार वाकई में जनता के लिए एकजुट हुई है ?
अगर हम सभी बातों और परिस्थितियों पर गौर करे तो ये महसूस होता है कि ये एकता जनता के लिए नहीं बल्कि अपने वजूद को बनाये रखने के लिए इन पार्टियों की आखिरी कोशिश है।  लोकसभा चुनाव 2014 के बाद  सभी दलों की हालत लगभग एक जैसी है।  उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी 2009 के अपने 23 सीटों के आंकड़े से 5 पर सिमट गई और जदयू अपने 20  सीटो की तुलना में 2 पर आ गयी। इन हालात में सभी क्षत्रपों के लिए अपने वजूद को बचाये रखने की जरुरत थी जिसका परिणाम इस विलय के रूप में सामने आया है। 
इन दलों के विलय के आगामी चुनावों में जो भी नतीजे हों लेकिन संसद के भीतर खासकर राज्यसभा में इससे सत्ता पक्ष की मुश्किलें बढ़ेगी। राज्यसभा में सीटों  की कमी से जूझ रहे एनडीए के लिए यह गठजोड़ और मुश्किलें पैदा करेगा। इन छह में से पांच दलों की राज्यसभा में मौजूदगी है और उनकी कुल संख्या 30 है। राज्यसभा में एनडीए के पास कुल 64 सीटें  है जिसमे बीजेपी की अकेले 47 सीटें हैं। जबकि प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस की अकेले 68 सीटें हैं। भूमि अधिग्रहण विधेयक समेत कई मुद्दों पर जनता परिवार से जुड़े दल हाल में एकसाथ नजर आए हैं और विलय के बाद यह रुख आगे भी कायम रहेगा।  विशेष परिस्थितियों में सरकार के लिए छोटे-मोटे दलों को अपनी ओर लेना आसान होता है लेकिन एक हो चुके जनता परिवार का सहयोग लेने में मुश्किल होगी।
इस परिवार की सबसे पहली चुनौती अक्टूबर 2015 में होने वाला बिहार विधान सभा चुनाव होगा।  लोकसभा चुनाव में राजद और जदयू का मिलाजुला वोट शेयर 36 प्रतिशत का था, जो की भाजपा के 30 प्रतिशत से कहीं ज्यादा है, और लालू यादव और नितीश कुमार इसी बात पर इतराते फिर रहे है की एकबार फिर से सत्ता उनके हाथ ही आयेगी। गौरतलब है कि लालू और नितीश आज जहाँ भी हैं उसमे एक बड़ी वजह एक दूसरे का विरोध रहा है।  अब विलय के पश्चात सबसे बड़ा प्रश्न ये है कि इस दोनों के परस्पर विरोधी वोट बैंक जिसकी वे राजनीती करते आये है, का विलय हो पायेगा?
लालू का आधार वोट अगर यादव और अगड़े मुसलमानों में रहा है तो नीतीश कुमार का अतिपिछड़ा, महादलित, पिछड़े मुसलमान और सवर्ण में। लोकसभा चुनावों में भाजपा अतिपिछड़ा वोटों में सेंध लगाने में कामयाब रही थी। वहीं मुस्लिम मतदाताओं का वोट कम पडा़ था। दोनों के साथ आने से न केवल चुनाव में पिछड़ा गोलबंदी के बल्कि अल्पसंख्यक वोटरों के उत्साह से वोट करने के आसार भी बढ़ गए हैं।
भाजपा की कोशिश यह भी है कि वह जीतनराम मांझी के प्रकरण को महादलित अपमान करार देकर जदयू के महादलित वोट में सेंध लगाए। माना जा रहा हैं कि मांझी सभी 243 सीटों पर उम्मीदवार देकर जदयू के वोट में सेंध लगाने की रणनीति अपनाएंगे। इसका फायदा भाजपा को होगा।

वैसे समाजवादी पार्टी के अंदरूनी सूत्र बताते है कि कई बड़े सपाई नेता इस विलय से खुश नहीं है और रामगोपाल यादव की गैरमौजूदगी इस बात को पुख्ता करती है।  सपाई को सपा के पहचान की चिंता है और सपाई छह रहे है की झंडा, निशान और नाम पर सपा का ही वर्चस्व रहे।  सपाइयों का तर्क ये है की नए परिवार से उत्तर प्रदेश को कोई फायदा नहीं होगा और प्रतिक चिन्ह बदल गए तो कार्यकर्ताओं को जोड़ना मुश्किल होगा।

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