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मंगलवार, 8 सितंबर 2015

अंधविश्वास के बहाने

अंधविश्वास के बहाने

भारत एक धार्मिक देश है लेकिन संविधान इसे धर्मनिरपेक्ष कहता है। यहाँ के लोग अपने धर्म को खुल कर स्वीकार करते है और उसमें अपने तरीके से श्रद्धा भी जाहिर करते है। आमतौर पर अधिकांश भारतीय अपने धर्म में आस्था रखते है और समय समय पर इसका प्रदर्शन भी करते है। भारत का संविधान इसकी इजाजत भी देता है। हाल के दिनों में धार्मिक जनगणना जारी की गयी है और ये इस बात का सबूत है की लोग अपने धर्म को लेकर कोई छिपाव इस देश में नहीं करते। हिन्दू बहुल इस देश में धार्मिक अल्पसंख्यक भी अपने धर्म और आस्था को मानने के के लिए स्वतंत्र है। ये इस बात का सबूत है कि भारतीय खासकर हिन्दू धार्मिक तौर पर सहिष्णु है। दुनिया के बाकी हिस्सों में शायद ही इस तरह की परिस्थिति बनती है। लेकिन हाल के दिनों में हिन्दू धर्म के बारे में जिस तरह के दुष्प्रचार समुदाय के भीतर और समुदाय के बाहर से देखने को मिले है वो दुखद है। कुछ लोग स्वार्थवश या कहें अपने को बुद्धिमान साबित करने के लिए ऐसा करते है। लेकिन उन्हें यह नही पता कि वे ऐसा करते हुये दूसरों की भावनाओं को ठेस पहुँचाते है। कुछ उनसे भी बड़े बुद्धिमान उन्हे ऐसा करने से रोकने की हर संभव कोशिश करते है। नतीजा होता है हिंसा।
भारत के संविधान की धारा 19(1) के जरिये सभी को अपनी बात कहने का अधिकार प्राप्त है। लेकिन उसी धारा का दुसरा हिस्सा इस अधिकार पर कुछ वाजिब रोक(Reasonable Restriction) भी लगाता है। इस हिस्से में संविधान अपनी बात कहने के दौरान नैतिकता और सद्भावना का ख्याल रखने की हिदायत भी देता है। लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई देने वाले लोग अपनी बातों को कहने के दौरान अक्सर संविधान की इस नसीहत की उपेक्षा करते पाये जाते है। कोई व्यक्ति धर्म को माने या न माने उसे इस बात के लिये भारतीय कानून से छूट मिली हुई है, लेकिन उसे वो दूसरो पर थोपे संविधान इसकी इजाजत हरगिज नही देता। हाल के दिनों में देश में कुछ इस तरह की धटनायें धटित हुई है जो भर्त्सनिय है। लेकिन ये धटनायें हमें ये सोंचने पर मजबूर करती है कि क्या हम इतने असहिष्णु पूर्वकाल से ही हैं। इसका जवाब है - नहीं।

हिंदु धर्म सनातन धर्म है। इस बारे में मुझे तो कोई संशय नही है। इसमें सबको समाहित करने की शक्ति है। इससे न जाने कितने धर्म और मत अलग हुये लेकिन इसे किंचित् भी फर्क नही पड़ा। हिंदु धर्म में 33 करोड़ देवी-देवताओं की मान्यता है। कहीं वैष्णव, शैव, शाक्त तो कहीं सगुण, निर्गुण विभाजन की कमी नही। साधु-संतो की भी कमी नही। धर्मगुरूओं की भी कमी नही। अपनी-अपनी मान्यताओं का प्रचार-प्रसार करना है। प्रचार के लिये साधन और संसाधन जुटाने है, दुकान तो सजानी पड़ेगी। दुकान सज गयी तो व्यपार तो होगा ही और व्यपार होगा तो धर्म कहाँ? लेकिन सबसे बड़ा सवाल तो ये है कि जो सनातन है, समाहित करने की शक्ति वाला है, उसे, चंद व्यपारी जो संयोगवश धर्म के पुरोधा बन बैठे है, के हाथों की कठपुतली बनने देना चाहिये? इसी बात का और कठपुतली बनने का फायदा उठा कर दुकान सजाने वाले लोग जब अपने व्यापार पर खतरा महसूस करते है तो आक्रामक हो उठते हैं। अपने उपर आने वाले सभी खतरों को निर्मूल करना चाहते है। आज जो लोग इस असहिष्णुता के निशाने पर उन्हे भी इस बात को समझना होगा कि अपनी बात कहने का हक तो उन्हें है, लेकिन इस दौरान उन्हें संविधान और कानून के दायरे में रहकर अपनी बात करनी चाहिये। जनमानस और भावनाओं का ख्याल रखिये। सबके भावनाओं का ख्याल नही कर सकते तो कम से कम बहुसंख्यक की भावनाओं का तो ख्याल रखिये। 

रविवार, 6 सितंबर 2015

सनातन गुरु -श्री कृष्ण

सनातन गुरु -श्री कृष्ण
05/09/2015 : नयी दिल्ली। आज श्री कृष्णा जन्माष्ठमी है और साथ ही शिक्षक दिवस। ये एक विशिष्ट संयोग है कि आज ही के दिन युग स्रष्टा श्री कृष्ण के पावन अवतरण दिवस के मौके पर भारत में शिक्षक दिवस भी मनाया जा रहा है। शिक्षक दिवस महान शिक्षाविद् डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिवस के मौके पर 5 सितम्बर को साल 1962 से मनाया जा रहा है। ये एक सुखद संयोग है कि डॉ राधाकृष्णन बीसवी सदी के धर्म एवं दर्शन के महान विद्वान थे। वे भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति और दूसरे राष्ट्रपति थे। अद्वैत वेदांत के दर्शन को मानने वाले डॉ राधाकृष्णन ने इसकी समकालीन पुनर्व्याख्या की। उनके विचार में शिक्षक को देश का सर्वश्रेष्ठ दिमाग होना चाहिए। लेकिन जो बाजारीकरण समाज में व्याप्त हो चला है, उसमें ये कितना प्रासंगिक है ये विचारणिय बिंदु है। गुरु-शिष्य का भाव समाप्त हो गया है परंपरा तो दूसरी दुनिया की बात होगी। शिक्षक दिवस के मौके पर केवल शिक्षक या गुरु को याद कर अपने जीवन में उनके योगदान को सिर्फ याद कर सकते है लेकिन उचित गुरूदक्षिणा तो उनके दिखाये मार्ग पर चलकर ही दी जा सकती है।
गुरु कौन है? गुरू वो है जो शिष्य के हित के लिए शिष्य को ज्ञान देता है। ये एक परिभाषा हो सकती है लेकिन सभी ग्रंथो का सार भी यही है। ये एक विराट परिकल्पना है जो साधारण तरीके से नही समझी जा सकती। इसके लिए हमें ज्ञान को समझना होगा। ज्ञान एक विशाल अवधारणा है जो बिना गुरू के समझ नही आती। ज्ञान का मतलब केवल विषयी ज्ञान नही होता बल्कि वो समग्र जानकारी है जो एक मनुष्य के जीवन में हर कदम पर काम आती है। ये वो अनुभव है जिसे करने के बाद मनुष्य पूर्णता का अनुभव करता है। वो अनुभव जो अर्जुन को श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र में कराया। श्री कृष्ण ने न केवल अर्जुन को ज्ञान का बोध कराया बल्कि उनके द्वारा पूरे ब्रम्हांड को उस अवधारणा से परिचित कराया। मात्र 700 श्लोकों के माध्यम से जो ज्ञान श्रीबिहारी जी ने सृष्टि को दिया उसे ग्रहण करने योग्य बनने के लिये कई जन्मों की साधना की आवश्यकता होती है। सांख्य योग, कर्म योग और भक्ति योग के माध्यम से जो संदेश श्रीकृष्ण ने दिया है उसे ग्रहण कर मनुष्य ज्ञानवान हो परमगति को प्राप्त कर लेता है। इसीलिये श्रीकृष्ण को जगतगुरु कहा जाता है।
वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम्
देवकीपरमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥ १॥

आतसीपुष्पसङ्काशम् हारनूपुरशोभितम्
रत्नकण्कणकेयूरं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥ २॥

कुटिलालकसंयुक्तं पूर्णचन्द्रनिभाननम्
विलसत्कुण्डलधरं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥ ३॥

मन्दारगन्धसंयुक्तं चारुहासं चतुर्भुजम्
बर्हिपिञ्छावचूडाङ्गं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥ ४॥

उत्फुल्लपद्मपत्राक्षं नीलजीमूतसन्निभम्
यादवानां शिरोरत्नं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥ ५॥

रुक्मिणीकेळिसंयुक्तं पीताम्बरसुशोभितम्
अवाप्ततुलसीगन्धं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥ ६॥

गोपिकानां कुचद्वन्द्व कुङ्कुमाङ्कितवक्षसम्
श्री निकेतं महेष्वासं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥ ७॥

श्रीवत्साङ्कं महोरस्कं वनमालाविराजितम्
शङ्खचक्रधरं देवं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥ ८॥

(श्रीकृष्णाष्टकम स्त्रोत – www.sanskritdocuments.org)