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गुरुवार, 2 जनवरी 2025

प्रभु की महिमा

एक आदमी रोज़ मंदिर जाता और कई घंटे पूजा करता और भगवान से कहता- हे प्रभु, मेरे दुख कम कब होंगे? मैं तो रोज़ तेरी पूजा करता हूँ, फिर भी इतने दुख भोगता हूँ और वहीं अन्य लोग जो तेरी कभी पूजा नही करते, फिर भी उन्हे किसी तरह की कोई कमी नही वो सदा ही खुशहाल रहते हैं ऐसा क्यूँ ? ऐसा तो बिल्कुल नही होना चाहिए?

इस तरह वह निरंतर संताप व अवसादग्रस्त रहता और कुढ़ता रहता। इस तरह व्यतीत करते उस मनुष्य का बुढ़ापा आ गया और एक दिन जब वो फिर घर से मंदिर के लिए निकला तो फिर से दूसरों को सुखी देख कर अवसादग्रस्त होके दुखी हो गया।

उसने ठान लिया कि आज वो पता लगाएगा की भगवान हैं भी की नही क्यूंकी यदि होते तो उसकी प्रार्थना अवश्य सुनते। ये सोचते हुए वो मंदिर जाने वाले हर आदमी से घुमा फिरा कर एक ही बात पूछने लगा की भैया तुम्हारा कोई मनोरथ पूरा हुआ क्या अभी तक। आश्चर्यजनक रूप से उसे सबसे यही उत्तर मिला की वो भी इसी उम्मीद से आ रहे हैं की कभी ना कभी उनके मनोरथ पूरे होंगे। अब उस व्यक्ति को लगने लगा की ये भगवान वगैरह झूठ है सिर्फ़ मंदिर के पुजारियों द्वारा मूर्ख बनाके पैसा बनाने का उपक्रम!

ऐसा विचार कर वो क्रोध मे भरने लगा और अपनी पूजन सामग्री वहीं छोड़ के मंदिर के पुजारियों से झगड़ा करने के लिए जाने लगा की तभी उसे एक और व्यक्ति दिखा जो नाचते गाते मंदिर मे जा रहा था और उसकी आखों से भी अश्रुधारा बह रही है। उस व्यक्ति ने भक्ति मे डूबे व्यक्ति से भी अपना प्रश्न पूछना चाहा परंतु वो आनंद मे इतना डूबा था की कुछ देख ही ना पाया और आगे बढ़ गया।

उस व्यक्ति ने ये समझा कि लगता है अभी ये व्यक्ति ने नया नया मंदिर आना शुरू किया है लेकिन इसे भी एकदिन पता चलेगा जब इसकी कोई भी इच्छा पूर्ण नही होगी। अब वो व्यक्ति नित्य आता परंतु मंदिर के द्वार से ही लौट जाता किंतु उस दूसरे व्यक्ति को अवश्य देखता जो प्रतिदिन उसी तरह भक्ति मे डूबकर मंदिर जाता और उसी भाँति भजन कीर्तन करते हुए लौटता।

ये सब देखकर अश्रद्धा से भरे उस व्यक्ति ने मंदिर द्वार तक जाना भी बंद कर दिया अब वो घर मे ही पड़ा रहता और अपने दुखों से अधिक दूसरों को सुखी देख देख के दुखी रहता।

एक दिन उसे सपने मे ऐसा लगा जैसे भगवान कह रहे हों कल उसके प्रश्नो का उत्तर मिलेगा। सुबह उसे लगा की स्वप्न की बात भी कहीं सत्य होती है वो उस बात को भूल गया।

अचानक दिन मे उसे अपने द्वार पर भजन कीर्तन की ध्वनि सुनाई पड़ी उसने द्वार खोला तो उन्ही संत महाराज को देखा जो नित्य आनंद मे भरे मंदिर जाते थे। उसके कुछ पूछने से पहले ही वो संत बोले, बंधु! मुझे भी कल स्वप्न आया की मुझे तुमसे मिलने आना है कहो क्या बात है?

अब उस व्यक्ति को अपने स्वप्न की बात सत्य लगने लगी और उसने तुरंत प्रश्न किया की मेरे दुख तो कुछ कम हुए नही। समस्त जीवन मैने भगवान की पूजा मे लगाया। तब संत बोले और आपने यहाँ तक विचार कर डाला की भगवान होते भी हैं की नही? अब वो व्यक्ति सकुचाया की इन्हे मेरी ये शंका कैसे ज्ञात हुई।

संत ने फिर कहा, बंधु! भगवान तो हैं ही और उनकी सबसे बड़ी कृपा यही है की वो अपनी भक्ति देते हैं बस व्यक्ति एक बार भाव से उनका स्मरण करे।


परंतु आप उस भक्ति का आनंद इसलिए नही उठा पाए क्यूंकी आप सदैव सांसारिक दुखों मे ही डूबे रहे और मंदिर मे जाकर भी अपनी समस्याओं को ही ले जाते रहे स्वयं को मंदिर कभी ले ही नही गये। माला भी जपी तो सांसारिक कष्टों व मलिन मन की।

आप ही बताइए की परमात्मा का आनंद की अनुभूति कैसे हो सकती है आपको? आपके कष्टों मे भी सबसे बड़ा कष्ट आपको दूसरों के सुखों से मिलता रहा जबकि स्वयं आपके जीवन मे तो सांसारिक दुख भी इतने नही थे। क्या आपने कभी सोचा की भगवान को इस तरह का आडंबर देखके कितना कष्ट होता होगा? वो तो नित्य ही सोचते थे की आज आप भाव से भरके आएँगे परंतु आपने उन्हे हमेशा उन्हे निराश किया।

वो तत्पर रहते थे की कभी जो आप उन्हे हृदय से पुकारें, अपने हृदय का द्वार खोलें तो वे आपके जीवन मे प्रविष्ट हों परंतु आपने तो कभी हृदय मे ये माना ही नही की भगवान हैं भी। ये उस परमेश्वर की ही कृपा है जो फिर भी आपकी शंकाओं का समाधान कर रहे हैं और आपके जीवन को परमानंद से युक्त कर रहे हैं।

अब उस व्यक्ति का सिर संत के चरणो मे गिर पड़ा और पहली बार उसके जीवन मे उसे हृदय से रोना आया ये सोचके की प्रभु कितने दयालु हैं। उसे ये बात सोचके भी दुख होने लगा की उसने इन संत के विषय मे भी क्या क्या ग़लत सोचा था। वो बहुत देर तक संत के चरणो को पकड़े रहा और फिर संत के साथ भजन कीर्तन करने लगा और फिर कीर्तन करते करते मंदिर गया।

उस दिन के बाद उसका पूरा जीवन बदल गया।

अब वो नित्य भाव से भरके मंदिर जाने लगा भगवान की भक्ति के आनंद की आँधी मे उसके दुखों के तिनके कब उड़ गये उसे पता ही ना चला अब वो घर मे भी रहता तो उसे यही लगता की वो मंदिर मे ही है।

विशेष ,,,,,

ये कहानी हमे यही सीख देती है की परमात्मा की भक्ति का आधार सांसारिक सोच को नही बनाना चाहिए और भगवान के सामने छल नही करना चाहिए। असली भक्ति का सार यही है की व्यक्ति अपने दुखों मे भी प्रभु की कृपा देखे ना की प्रभु को उलाहना दे क्यूंकी हो सकता है प्रारब्धवश उसे और दुख मिलने थे परंतु प्रभु कृपा से कम हो गये।

भगवान की भक्ति का आनंद ही जीवन का सार है..!!

बुधवार, 18 नवंबर 2015

देश में स्वच्छता

देश में स्वच्छता
                           (टाइम्स ऑफ इंडिया से साभार)
18 नवंबर 2015, नई दिल्ली। आज सुबह उदयीमान सूर्य को अर्ध्य देने के साथ महापर्व छठ संपन्न हुआ। सुबह अखबार के पहले पन्ने पर छठ पूजा के एक व्रती की तस्वीर ने विचलित कर दिया। उस तस्वीर में एक व्रती यमुना नदी के झागदार काले जल में स्नान कर रही है। यह उस महिला की इस महापर्व में आस्था है कि वो उस जल में भी डूबकी लगा रही है जिसमें शायद जानवर भी स्नान नही करते। यह पर्व शुचिता का है, स्वच्छता का है और पर्यावरण संतुलन बनाये रखने का है लेकिन इस तस्वीर ने मुझे सोंचने पर मजबूर कर दिया कि हम किस तरह का व्रत कर रहे है?

गुरुवार, 12 नवंबर 2015

महापर्व छठ

महापर्व छठ
संपूर्ण भारत में सूर्य के उपासना का महापर्व छठ पूरे धूम-धाम से मनाया जा रहा है। डाला छठ, सूर्य षष्ठी, छठी मईया, छठ पूजा जैसे कई नामों से विख्यात इस पर्व में प्रकृति के साक्षात् देव सूर्य की पूजा की जाती है। सूर्य देव को पवित्र जल द्वारा पूजित कर जीवन के आधारभूत दो तत्वों के सामंजस्य के महत्व को स्थापित किया जाता है। केवल पूर्वांचल में कभी प्रचलित रहे इस पर्व को अब पूरे भारत वर्ष में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी मनाया जाता है। साल 2015 में यह पूजा 15 नवंबर से लेकर 18 नवंबर तक मनाया जाएगा। लोकआस्था के इस पर्व को संपूर्ण बिहार, झारखंड एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश में मुख्यतः मनाया जाता था। बदलते समय के साथ पूर्वांचल वासियों के प्रवास ने इस पर्व को संपूर्ण भारत के अलावा विदेश के कई हिस्सों में भी प्रसारित किया है।

गुरुवार, 22 अक्टूबर 2015

रावण दहन का मतलब

रावण दहन का मतलब
22/10/2015, नई दिल्ली। आज विजयादशमी का पर्व पूरे उल्लास से मनाया जा रहा है। आप सभी को विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनायें। बचपन से सुनते आ रहें है कि आज के दिन ही भगवान राम ने राक्षसराज रावण को पराजित कर देवी सीता को मुक्त कराया था और यह पर्व उसी के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। यह पर्व बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक के तौर पर मनाया जाता है और आज के दिन प्रतिकात्मक रूप से हम रावण के पुतले का दहन करते है। लेकिन अब ये सिर्फ प्रतिकात्मक ही रह गया है और ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ कि आज हम अपने अंदर के रावण का दहन करना बंद कर दिया है।

शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2015

सफाई के मायने

­­­­­­सफाई के मायने
02/10/2015, नई दिल्ली। आज देश के दो महापुरुषों का जन्मदिवस है। आधुनिक भारत के वर्तमान स्वरूप का निर्माण करने में इनका महत्वपूर्ण योगदान माना जाता है। अहिंसा के पुजारी गांधी जी और जय जवान-जय किसान के प्रणेता पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी के जयंती पर शत्-शत् नमन। 2014 में केंद्र में नई सरकार आने के बाद महात्मा गांधी के जयंती को स्वच्छता से जोड़ कर देखा जाने लगा है। सरकार ने स्वच्छता के लिए अभियान चलाया है और भारत को स्वच्छ और निर्मल बनाने की योजना बनाई है। लेकिन केवल सरकारी योजनाओं से क्या भारत स्वच्छ हो पायेगा? जवाब नही में है। भारत के अधिकांश नागरिकों का सफाई के प्रति सरोकार बहुत कम है या नही के बराबर है। खुले में शौच करना, कूड़ा इधर-उधर फेंकना या बिखेरना, यत्र-तत्र थूकना और मलबों का सही तरीके से निपटारा नही करना जैसे अनेक कारण है जिसके वजह से भारत में सर्वत्र गंदगी देखने को मिलती है। इस गंदगी की वजह से अनेकों समस्या या बीमारियां पैदा होती है।

गुरुवार, 24 सितंबर 2015

भारत – कितना धर्मनिरपेक्ष?

भारत – कितना धर्मनिरपेक्ष?
24/09/2015, नई दिल्ली। आज टीवी पर एक वाद-विवाद देख रहा था जिसमें चर्चा हो रही थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आयरलैंड में विपक्षी दलों की धर्मनिरपेक्षता पर कटाक्ष किया है। आयरलैंड में प्रधानमंत्री के सम्मान में आयोजित एक कार्यक्रम में आयरिश बच्चों ने संस्कृत में श्लोक पढ़े और स्वागत गान गाये। प्रधानमंत्री ने इस पर कहा कि हम आयरलैंड में तो ऐसा कर सकते हैं लेकिन भारत में करते तो शायद धर्मनिरपेक्षता खतरे में पड़ जाती। एक बात तो सत्य है कि हमारी सभ्यता और संस्कृति के उत्थान में संस्कृत भाषा क योगदान सबसे अधिक है। वैज्ञानिक आधार पर दुनिया की प्राचीनतम भाषा में से एक होने का गौरव जिसे प्राप्त है उस भाषा को उसके उद्गम स्थल पर वो सम्मान अब तक नही मिल पाया है जिसकी वो हकदार है। खैर हमारा इस विषय पर बात करने का उद्देश्य है कि आखिर विदेश में प्रधानमंत्री को यह बात कहने की जरूरत क्यों पड़ी?

संविधान निर्माताओं ने संविधान बनाते समय इसके द्वारा देश को धर्मनिरपेक्ष नही रखा था। 17 अक्टूबर 1949 को संविधान सभा में प्रस्तावना पर बहस के दौरान इसके सदस्य ब्रजेश्वर प्रसाद द्वारा इस आशय का प्रस्ताव किया गया था। लेकिन संविधान सभा ने इसे सिरे से खारिज कर दिया था। साल 1976 में 42 वें संविधान संशोधन विधेयक द्वारा तत्कालीन कांग्रेस पार्टी की सरकार, जिसकी प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गांधी थी, ने संविधान के प्रस्तावना में इसे जोड़ा। गौरतलब है कि उस समय देश में आपातकाल लागू था। इस विधेयक की धारा (2) के जरिये प्रस्तावना में "SOVEREIGN DEMOCRATIC REPUBLIC" के स्थान पर "SOVEREIGN SOCIALIST SECULAR DEMOCRATIC REPUBLIC" जोड़ा गया। सन् 1950 से लेकर 1976 तक कभी ऐसी जरूरत महसूस नही हुई कि देश को सोशलिस्ट और सेक्युलर होना चाहिये। फिर ऐसी क्या मजबूरी थी कि तत्कालीन कांग्रेस सरकार को संविधान की प्रस्तावना में ये दो शब्द जोड़ने की जरूरत पड़ी। जवाब शायद तब तक देश के बदले हुये हालात से मिलेगा। तुष्टीकरण की राह पर चल पड़ी कांग्रेस सरकार ने वोट बैंक पॉलिटिक्स के चक्कर में अल्पसंख्यक समुदाय को खुश कर अपने पाले में करने के लिये शायद संविधान की आत्मा तक को बदलने में कोई कोताही नही बरती। सवाल उठता है कि देश क्या वाकई में धर्म निरपेक्ष है? पहले हमें शब्द धर्मनिरपेक्षता के समझना होगा। सीधे शब्दों में धर्मनिरपेक्षता का मतलब धर्म के प्रति निरपेक्ष अथवा तटस्थ होना होता है। संविधान में इसका मतलब संवैधानिक संस्थाओं द्वारा धर्म के प्रति तटस्थ होना है लेकिन क्या हमारा संविधान अल्पसंख्यको को धर्म के आधार पर कुछ रियायत नही बरतता? जवाब आप भी जानते हैं। धर्मनिरपेक्षता के तत्वों में राज्य के संचालन एवं नीति-निर्धारण में धर्म का हस्तक्षेप नही होनी चाहिये और सभी धर्म के लोग कानून, संविधान एवं सरकारी नीति के आगे समान है। क्या वाकई इस देश में इस तरह की परिस्थितियां है? एक और अहम बात है कि सहिष्णुता धर्मनिरपेक्षता का आधार है। देश में जो आज हालात है क्या हम कह सकते हैं कि सहिष्णुता हमारे समाज में पूर्वकाल की तरह मौजूद है। देश में धार्मिक आधार पर होते दंगे क्या इस बात के सबूत नही है कि हमारा देश अब सहिष्णुता के दौर से आगे निकल आया है। क्यों और किस वजह से मैं इसमें नही जाना चाहता लेकिन इतना कहना चाहता हूँ कि इसके लिये देश की राजनैतिक ताकतें जिम्मेदार हैं। पूरी दुनिया में शायद भारत एकमात्र ऐसा देश है जहां समाज धर्म और जातियों के आधार पर इतने हिस्सों में बंटा है कि सामाजिक ताना-बाना ही बिखर कर रह गया है। देश के बहुसंख्यक को इस तरह से कमजोर कर दिया गया है कि समाज में वो सिमट बंट कर रह गये हैं। एक बात और ये है कि देश में अल्पसंख्यकों को जितने अधिकार प्राप्त है उतना दुनिया के किसी सभ्य और विकसित देश में उपलब्ध नही है। समस्या यह है कि देश में कुछ छद्म धर्मनिरपेक्ष लोग हैं जो इस संवैधानिक व्यवस्था का लाभ उठाकर अपनी रोटी सेंकने में लगे रहते है चाहे समाज का कितना भी नुकसान क्यों ना हो जाये। आज देश को जरूरत है इन छद्म धर्मनिरपेक्ष लोगों से होशियार रहने की ताकि देश की एकता और अखंडता कायम रह सके।          

मंगलवार, 8 सितंबर 2015

अंधविश्वास के बहाने

अंधविश्वास के बहाने

भारत एक धार्मिक देश है लेकिन संविधान इसे धर्मनिरपेक्ष कहता है। यहाँ के लोग अपने धर्म को खुल कर स्वीकार करते है और उसमें अपने तरीके से श्रद्धा भी जाहिर करते है। आमतौर पर अधिकांश भारतीय अपने धर्म में आस्था रखते है और समय समय पर इसका प्रदर्शन भी करते है। भारत का संविधान इसकी इजाजत भी देता है। हाल के दिनों में धार्मिक जनगणना जारी की गयी है और ये इस बात का सबूत है की लोग अपने धर्म को लेकर कोई छिपाव इस देश में नहीं करते। हिन्दू बहुल इस देश में धार्मिक अल्पसंख्यक भी अपने धर्म और आस्था को मानने के के लिए स्वतंत्र है। ये इस बात का सबूत है कि भारतीय खासकर हिन्दू धार्मिक तौर पर सहिष्णु है। दुनिया के बाकी हिस्सों में शायद ही इस तरह की परिस्थिति बनती है। लेकिन हाल के दिनों में हिन्दू धर्म के बारे में जिस तरह के दुष्प्रचार समुदाय के भीतर और समुदाय के बाहर से देखने को मिले है वो दुखद है। कुछ लोग स्वार्थवश या कहें अपने को बुद्धिमान साबित करने के लिए ऐसा करते है। लेकिन उन्हें यह नही पता कि वे ऐसा करते हुये दूसरों की भावनाओं को ठेस पहुँचाते है। कुछ उनसे भी बड़े बुद्धिमान उन्हे ऐसा करने से रोकने की हर संभव कोशिश करते है। नतीजा होता है हिंसा।
भारत के संविधान की धारा 19(1) के जरिये सभी को अपनी बात कहने का अधिकार प्राप्त है। लेकिन उसी धारा का दुसरा हिस्सा इस अधिकार पर कुछ वाजिब रोक(Reasonable Restriction) भी लगाता है। इस हिस्से में संविधान अपनी बात कहने के दौरान नैतिकता और सद्भावना का ख्याल रखने की हिदायत भी देता है। लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई देने वाले लोग अपनी बातों को कहने के दौरान अक्सर संविधान की इस नसीहत की उपेक्षा करते पाये जाते है। कोई व्यक्ति धर्म को माने या न माने उसे इस बात के लिये भारतीय कानून से छूट मिली हुई है, लेकिन उसे वो दूसरो पर थोपे संविधान इसकी इजाजत हरगिज नही देता। हाल के दिनों में देश में कुछ इस तरह की धटनायें धटित हुई है जो भर्त्सनिय है। लेकिन ये धटनायें हमें ये सोंचने पर मजबूर करती है कि क्या हम इतने असहिष्णु पूर्वकाल से ही हैं। इसका जवाब है - नहीं।

हिंदु धर्म सनातन धर्म है। इस बारे में मुझे तो कोई संशय नही है। इसमें सबको समाहित करने की शक्ति है। इससे न जाने कितने धर्म और मत अलग हुये लेकिन इसे किंचित् भी फर्क नही पड़ा। हिंदु धर्म में 33 करोड़ देवी-देवताओं की मान्यता है। कहीं वैष्णव, शैव, शाक्त तो कहीं सगुण, निर्गुण विभाजन की कमी नही। साधु-संतो की भी कमी नही। धर्मगुरूओं की भी कमी नही। अपनी-अपनी मान्यताओं का प्रचार-प्रसार करना है। प्रचार के लिये साधन और संसाधन जुटाने है, दुकान तो सजानी पड़ेगी। दुकान सज गयी तो व्यपार तो होगा ही और व्यपार होगा तो धर्म कहाँ? लेकिन सबसे बड़ा सवाल तो ये है कि जो सनातन है, समाहित करने की शक्ति वाला है, उसे, चंद व्यपारी जो संयोगवश धर्म के पुरोधा बन बैठे है, के हाथों की कठपुतली बनने देना चाहिये? इसी बात का और कठपुतली बनने का फायदा उठा कर दुकान सजाने वाले लोग जब अपने व्यापार पर खतरा महसूस करते है तो आक्रामक हो उठते हैं। अपने उपर आने वाले सभी खतरों को निर्मूल करना चाहते है। आज जो लोग इस असहिष्णुता के निशाने पर उन्हे भी इस बात को समझना होगा कि अपनी बात कहने का हक तो उन्हें है, लेकिन इस दौरान उन्हें संविधान और कानून के दायरे में रहकर अपनी बात करनी चाहिये। जनमानस और भावनाओं का ख्याल रखिये। सबके भावनाओं का ख्याल नही कर सकते तो कम से कम बहुसंख्यक की भावनाओं का तो ख्याल रखिये। 

रविवार, 6 सितंबर 2015

सनातन गुरु -श्री कृष्ण

सनातन गुरु -श्री कृष्ण
05/09/2015 : नयी दिल्ली। आज श्री कृष्णा जन्माष्ठमी है और साथ ही शिक्षक दिवस। ये एक विशिष्ट संयोग है कि आज ही के दिन युग स्रष्टा श्री कृष्ण के पावन अवतरण दिवस के मौके पर भारत में शिक्षक दिवस भी मनाया जा रहा है। शिक्षक दिवस महान शिक्षाविद् डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिवस के मौके पर 5 सितम्बर को साल 1962 से मनाया जा रहा है। ये एक सुखद संयोग है कि डॉ राधाकृष्णन बीसवी सदी के धर्म एवं दर्शन के महान विद्वान थे। वे भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति और दूसरे राष्ट्रपति थे। अद्वैत वेदांत के दर्शन को मानने वाले डॉ राधाकृष्णन ने इसकी समकालीन पुनर्व्याख्या की। उनके विचार में शिक्षक को देश का सर्वश्रेष्ठ दिमाग होना चाहिए। लेकिन जो बाजारीकरण समाज में व्याप्त हो चला है, उसमें ये कितना प्रासंगिक है ये विचारणिय बिंदु है। गुरु-शिष्य का भाव समाप्त हो गया है परंपरा तो दूसरी दुनिया की बात होगी। शिक्षक दिवस के मौके पर केवल शिक्षक या गुरु को याद कर अपने जीवन में उनके योगदान को सिर्फ याद कर सकते है लेकिन उचित गुरूदक्षिणा तो उनके दिखाये मार्ग पर चलकर ही दी जा सकती है।
गुरु कौन है? गुरू वो है जो शिष्य के हित के लिए शिष्य को ज्ञान देता है। ये एक परिभाषा हो सकती है लेकिन सभी ग्रंथो का सार भी यही है। ये एक विराट परिकल्पना है जो साधारण तरीके से नही समझी जा सकती। इसके लिए हमें ज्ञान को समझना होगा। ज्ञान एक विशाल अवधारणा है जो बिना गुरू के समझ नही आती। ज्ञान का मतलब केवल विषयी ज्ञान नही होता बल्कि वो समग्र जानकारी है जो एक मनुष्य के जीवन में हर कदम पर काम आती है। ये वो अनुभव है जिसे करने के बाद मनुष्य पूर्णता का अनुभव करता है। वो अनुभव जो अर्जुन को श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र में कराया। श्री कृष्ण ने न केवल अर्जुन को ज्ञान का बोध कराया बल्कि उनके द्वारा पूरे ब्रम्हांड को उस अवधारणा से परिचित कराया। मात्र 700 श्लोकों के माध्यम से जो ज्ञान श्रीबिहारी जी ने सृष्टि को दिया उसे ग्रहण करने योग्य बनने के लिये कई जन्मों की साधना की आवश्यकता होती है। सांख्य योग, कर्म योग और भक्ति योग के माध्यम से जो संदेश श्रीकृष्ण ने दिया है उसे ग्रहण कर मनुष्य ज्ञानवान हो परमगति को प्राप्त कर लेता है। इसीलिये श्रीकृष्ण को जगतगुरु कहा जाता है।
वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम्
देवकीपरमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥ १॥

आतसीपुष्पसङ्काशम् हारनूपुरशोभितम्
रत्नकण्कणकेयूरं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥ २॥

कुटिलालकसंयुक्तं पूर्णचन्द्रनिभाननम्
विलसत्कुण्डलधरं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥ ३॥

मन्दारगन्धसंयुक्तं चारुहासं चतुर्भुजम्
बर्हिपिञ्छावचूडाङ्गं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥ ४॥

उत्फुल्लपद्मपत्राक्षं नीलजीमूतसन्निभम्
यादवानां शिरोरत्नं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥ ५॥

रुक्मिणीकेळिसंयुक्तं पीताम्बरसुशोभितम्
अवाप्ततुलसीगन्धं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥ ६॥

गोपिकानां कुचद्वन्द्व कुङ्कुमाङ्कितवक्षसम्
श्री निकेतं महेष्वासं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥ ७॥

श्रीवत्साङ्कं महोरस्कं वनमालाविराजितम्
शङ्खचक्रधरं देवं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥ ८॥

(श्रीकृष्णाष्टकम स्त्रोत – www.sanskritdocuments.org)

गुरुवार, 16 अप्रैल 2015

महापर्व छठ

महापर्व छठ
संपूर्ण भारत में सूर्य के उपासना का महापर्व छठ पूरे धूम-धाम से मनाया जा रहा है। डाला छठ, सूर्य षष्ठी, छठी मईया, छठ पूजा जैसे कई नामों से विख्यात इस पर्व में प्रकृति के साक्षात् देव सूर्य की पूजा की जाती है। सूर्य देव को पवित्र जल द्वारा पूजित कर जीवन के आधारभूत दो तत्वों के सामंजस्य के महत्व को स्थापित किया जाता है। केवल पूर्वांचल में कभी प्रचलित रहे इस पर्व को अब पूरे भारत वर्ष में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी मनाया जाता है। साल 2015 में यह पूजा 15 नवंबर से लेकर 18 नवंबर तक मनाया जाएगा। लोकआस्था के इस पर्व को संपूर्ण बिहार, झारखंड एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश में मुख्यतः मनाया जाता था। बदलते समय के साथ पूर्वांचल वासियों के प्रवास ने इस पर्व को संपूर्ण भारत के अलावा विदेश के कई हिस्सों में भी प्रसारित किया है।