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गुरुवार, 12 नवंबर 2015

महापर्व छठ

महापर्व छठ
संपूर्ण भारत में सूर्य के उपासना का महापर्व छठ पूरे धूम-धाम से मनाया जा रहा है। डाला छठ, सूर्य षष्ठी, छठी मईया, छठ पूजा जैसे कई नामों से विख्यात इस पर्व में प्रकृति के साक्षात् देव सूर्य की पूजा की जाती है। सूर्य देव को पवित्र जल द्वारा पूजित कर जीवन के आधारभूत दो तत्वों के सामंजस्य के महत्व को स्थापित किया जाता है। केवल पूर्वांचल में कभी प्रचलित रहे इस पर्व को अब पूरे भारत वर्ष में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी मनाया जाता है। साल 2015 में यह पूजा 15 नवंबर से लेकर 18 नवंबर तक मनाया जाएगा। लोकआस्था के इस पर्व को संपूर्ण बिहार, झारखंड एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश में मुख्यतः मनाया जाता था। बदलते समय के साथ पूर्वांचल वासियों के प्रवास ने इस पर्व को संपूर्ण भारत के अलावा विदेश के कई हिस्सों में भी प्रसारित किया है।

मंगलवार, 10 नवंबर 2015

जात न पूछो बिहार की

जात न पूछो बिहार की
10 नवंबर 2015, नई दिल्ली। जिस बिहार विधानसभा चुनाव 2015 पर पूरे देश की नजर थी वो संपन्न हुआ जिसमें नितीश कुमार नीत् महागठबंधन विजयी रहा। यह चुनाव कई मायनो में ऐतिहासिक था और कई रिकार्ड इस चुनाव के परिणाम ने बनाये। महागठबंधन द्वारा घोषित मुख्यमंत्री नितीश कुमार पाँचवी बार बिहार के मुख्यमंत्री पद ग्रहण करेंगे और ये एक कीर्तिमान है। इससे पहले बिहार में कभी कोई इतनी बार मुख्यमंत्री नही बना और इतने दिनों तक कोई इस पद पर रहा भी नही है। इस रिकार्ड तोड़ प्रर्दशन के लिए नितीश कुमार को बधाई और बिहार की जनता को भी बधाई।
(Courtsey: Election Commission of India)

मंगलवार, 6 अक्टूबर 2015

बिहार चुनाव और गौवंश का महत्व

बिहार चुनाव और गौवंश का महत्व
06/10/2015, नई दिल्ली। बिहार चुनाव के महासमर में लालू यादव के द्वारा दिया गया एक बयान महागठबंधन के लिए मुसीबत का सबब बनते जा रहा है। विपक्षी एनडीए ने इस बयान को लपकने में देर नही की और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने रातों-रात रणनीति बदलते हुए लालू यादव पर हमला बोलने में भी देर नही की। उत्तर प्रदेश में ग्रेटर नोएडा के बिसहाड़ा गांव में एक व्यक्ति की भीड़ द्वारा पीटकर हत्या किये जाने पर रविवार को प्रतिक्रिया देते हुए राजद अध्यक्ष ने कहा कि हिंदू गौमांस खाते हैं और जो भारतीय विदेश में रहते हैं वो भी गौमांस खाते है। रोजाना मांस खाने वाले के लिए गौमांस और बकरे के मांस में कोई फर्क नही होता है। सभ्य लोग कभी मांस नही खाते। इस बयान के आते ही बीजेपी की तरफ से प्रतिक्रिया आनी शुरू हो गई और इस मुद्दे को हर मंच और सभा मे उठाया जा रहा है। इस बयान पर महागठबंधन की तरफ से कोई आधिकारिक बयान अब तक सामने नही आया है। गलती का एहसास होने पर लालू यादव ने झल्लाते हुए कहा कि शैतान ने ये सब उनके मुँह से निकलवाया है।

शनिवार, 3 अक्टूबर 2015

बिहार चुनाव – हार-जीत के मतलब

बिहार चुनाव – हार-जीत के मतलब 
03/10/2015, नई दिल्ली। जैसे-जैसे बिहार विधानसभा के मतदान की तारीख नजदीक आ रही है सभी राजनीतिक दलों के नेताओं के बीच जुबानी जंग तेज होती जा रही है। इस जंग में सभी दल और सभी स्तर के नेता शामिल है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के नेतृत्व में बिहार भाजपा के सभी नेता अपने गठबंधन के सहयोगियों के साथ राजद प्रमुख लालू यादव, महागठबंधन के नेता नीतीश कुमार के अलावा अन्य विपक्षी नेताओं का सामना करने में कोई कोर-कसर नही छोड़ रहे हैं। लग रहा है जैसे बिहार विधानसभा चुनाव में समुचा बिहार राज्य जंग का मैदान बन गया है और कहावत के मुताबिक सबकुछ जायज है इस जंग के मैदान में।
           

सोमवार, 28 सितंबर 2015

बिहार - किसकी सरकार?

बिहार - किसकी सरकार?
28/09/2015, नई दिल्ली। बिहार विधानसभा चुनाव की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है और मैदान में उतरे दो बड़े गठबंधन एनडीए और महागठबंधन दोनो ही सरकार बनाने का दावा कर रहें है। एनडीए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विकास के एजेंडे पर वोट मांग रही है तो वहीं महागठबंधन बिहार में 10 साल तक सत्ता में रहे नीतीश कुमार के द्वारा किये गये विकास कार्य के आधार पर वोट मांग रहा है। सवाल ये है कि क्या सचमुच बिहार में विकास के नाम पर वोट डाले जायेंगे?
बिहार में इस चुनाव के जरिये 16 वी बार विधानसभा चुने जाने के लिये वोट डाले जायेंगे। अब तक 15 बार बिहार में विधानसभा के लिए मतदान हो चुका है। साल 2010 के चुनाव में जदयू के 20.46%, बीजेपी को 15.64%, राजद को 23.45%, लोजपा को 11.09% और कांग्रेस को 6.09% वोट मिले थे। इसके अलावा बसपा को 4.17% और निर्दलिय उम्मिदवारों को 8.76% वोट मिले थे। वर्तमान में बिहार विधानसभा में कुल 243 सीटों में से 203 सीटें अनारक्षित, 38 सीटें अनुसूचित जाति और 2 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिये है। 31 जुलाई 2015 के वोटरलिस्ट के मुताबिक इसबार के चुनाव में कुल 6,68,26,658 (6 करोड़ 68 लाख 26 हजार 658) मतदाता 62779 मतदान केंद्रों पर अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे। साल 2010 में हुए चुनाव में बिहार का राजनीतिक ध्रुविकरण अब से अलग था। क्या नई परिस्थितियों में तमाम पार्टीयों के वोट प्रतिशत ऐसे ही रहेंगे?
लॉ फैकल्टी, दिल्ली विश्वविद्यालय में मेरा पहला दिन था। जब मैं क्लास के बाद लॉन में बैठा अपने कुछ सहपाठियों से बातचीत कर रहा था तो परिचय के दौरान मेरी जाति जानने की उत्सुकता सबमें थी। मैं तब दिल्ली नया-नया आया था और इस बात से अनभिज्ञ था कि मेरी जाति ही यहां मेरी मित्र मंडली तय करेगी। खैर जातिवाद के भयावह चेहरे से यहां छात्रसंघ के चुनावों में सामना हुआ जब प्रवासी बिहारियों में भी जातिगत आधार पर उम्मीदवार चुने गये। वो तो छात्रसंघ के चुनाव थे लेकिन देश में जितने भी चुनाव होते हैं उनमें जातिवाद, धर्म और क्षेत्रवाद प्रमुख मुद्दे होते हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में एक और मुद्दा जुड़ा और वो है विकास का। लेकिन बिहार में विकास के नाम पर वोट डाले जायेंगे ये  कहना बेमानी होगा। जहां से पूरे देश में सर्वाधिक पलायन होता है उस राज्य में भी जातिवाद समाज की गहराईयों में बसती है। बिहार में करीब अगड़ी जाति के 15% वोट है जिसमें करीब ब्राह्मण 5%, राजपूत 3%, भूमिहार 6% और कायस्थ 1% है। ओबीसी में 14.2% यादव, कुर्मी 4%, और करीब 3% वैश्य जाति का वोट है। अति पिछड़ी जाति के 30 प्रतिशत में कोयरी 8%, कुशवाहा 6% और तेली 3.2% शामिल है। दलित और महादलित मिलाकर 16% वोट है वहीं 16.9% मुसलमान वोटर है। पिछले विधानसभा चुनाव में कुर्मी, अतिपिछड़ा और महादलित वोट में से सबसे बड़ा हिस्सा नीतीश कुमार की वजह से जदयू को मिले थे। अगड़ी जातियों के वोटों में से कुछ हिस्सा राजद, कुछ जदयू लेकिन सबसे ज्यादा बीजेपी को मिला था। परिस्थितियां इसबार बिल्कुल उलटी है। इसबार जीतनराम मांझी की वजह से महादलित वोट का एक बड़ा हिस्सा एनडीए के पक्ष में खड़ा दिख रहा है। कुर्मी वोटों को छोड़कर पिछड़ा वर्ग का वैश्य समाज का वोट इसबार जदयू के हाथ से निकलता हुआ दिख रहा है। पिछले लोकसभा चुनाव में यादव वोटबैंक का बंटवारा हुआ था और राजद के अलावा एनडीए को भी यादव वोटों का एक बड़ा हिस्सा मिला था। इसबार भी कमोबेश यही स्थिति दिख रही है। मुस्लिम वोट जो अब तक राजद के खाते में जाता था, इसबार हैदराबादी एमआईएम के आने से बंटती हुई नजर आ रही है। सीमांचल में ओवैसी द्वारा चुनाव लड़ने की घोषणा के बाद राजद में घबराहट है। लालू यादव के दबाव में अनंत सिंह और सुनील पांडे को जदयू से निकालकर नीतीश कुमार भूमिहार वोट से हाथ धो बैठे है जिसके वजह से ये निश्चित रूप से बीजेपी को मिलने जा रही है। कायस्थ और वैश्य परंपरागत रूप से बीजेपी के वोटर रहें है और इस में कोई फर्क नही आया है। लोजपा की वजह से दलितवर्ग में खासकर पासवान  और रालोसपा की वजह से कुशवाहा वोट एनडीए की झोली में आते दिख रहें है। मतलब इसबार जदयू चुनावी गणित में बीजेपी नीत् एनडीए से पिछड़ती दिखाई दे रही है। लेकिन अंतिम परिणाम तो चुनाव बाद ही पता चलेगा।
कुछ भी हो इस बार बिहार में करीब 4.12 प्रतिशत यानी साढ़े सताईस लाख वोटर ऐसे हैं जो अपने मताधिकार का पहली बार प्रयोग करेंगे। करीब 10.5 प्रतिशत यानि 7012124 वोटर 18 से 25 साल की उम्र के हैं और यह समूह किसी भी पार्टी के लिये महत्वपूर्ण है। बिहार का युवा अगर यह ठान ले कि बिहार को बदलना है तो कोई ताकत उसे ऐसा करने से रोक नही सकती। बिहार के युवक और युवतियों जागो, बदलो अपनी किस्मत और बिहार को। 

शुक्रवार, 25 सितंबर 2015

बिहार का मुख्यमंत्री कौन?

बिहार का मुख्यमंत्री कौन?
25/09/2015, नई दिल्ली। बिहार विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है। पूरे देश की नजर इस चुनाव पर नजर है। इस चुनाव में सत्ता और विपक्ष दोनो के लिये करो या मरो की स्थिति है। केंद्र में सत्ता पर काबिज बीजेपी नीत एनडीए बिहार में अपनी पूरी ताकत के साथ मैदान में है। एनडीए के सामने बिहार में पिछले 10 सालों से कुर्सी संभाल रहे नीतीश कुमार के नेतृत्व में महागठबंधन जोरआजमाइश के लिये तैयार खड़ी है। महागठबंधन में जदयू, राजद और कांग्रेस ने नीतीश कुमार को पहले से मुख्यमंत्री के तौर पर अपना उम्मीदवार घोषित किया है। एनडीए ने अभी तक किसी को मुख्यमंत्री के तौर पर अपना उम्मीदवार नही बनाया है। एनडीए ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपना चेहरा बना कर मैदान में उतरने का फैसला किया है। वैसे तो एनडीए में कई संभावित उम्मीदवार हैं लेकिन मुख्यमंत्री बनने की संभावना बीजेपी के ही किसी सदस्य की है। सहयोगी दलों में भी कई नेताओं ने बिहार की सत्ता के लिये मंसूबे पाल रखे है, लेकिन एनडीए के सबसे बड़े घटक बीजेपी ऐसा होने देगी इसकी संभावना नही के बराबर है। लोक जनशक्ति पार्टी के मुखिया रामविलास पासवान कई बार इस आशय की चर्चा परोक्ष रूप से की है लेकिन उन्ही के पुत्र चिराग पासवान भी इस पर अपनी दावेदारी काफी पहले जता चुके है। ये अलग बात है कि चुनाव की घोषणा के बाद से लोजपा प्रमुख या उनके पुत्र ने इस संदर्भ में अपना मुँह नही खोला है। एक और घटक राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा ने भी मुख्यमंत्री बनने का सपना देखा है लेकिन किसी भी तरफ से समर्थन ना मिलने से वो अपना मन मसोस कर रह गये। जदयू छोड़कर एनडीए में नये-नवेले शामिल और महादलित नेता जीतनराम मांझी तो शायद इसी मंसूबे के साथ एनडीए में आये ही थे लेकिन यहां आने के बाद समझ में आया कि ये कुर्सी इतनी आसानी से नही मिलने वाली। उनके लिये दूसरा कोई उपाय होता तो शायद वो निकल भी जाते लेकिन बाकी दरवाजे तो वो खुद बंद कर आये थे। बीजेपी में पहला नाम सुशील मोदी का आता है लेकिन उनकी संभावना नही के बराबर है। वजह तो कई है मसलन जातिवाद का आरोप, साफ-सुथरी छवि का ना होना और सबसे बड़ी बात वर्तमान नेतृत्व को नापसंद होना है। इस नापसंदगी की वजह तो कई वर्ष पुरानी है क्योंकि जब गुजरात तत्कालीन के मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री बनाने की चर्चा चली तो बिहार के मुख्यमंत्री के पक्ष में और गुजरात के मुख्यमंत्री के विरोध में सबसे मुखर रहने के गौरव उन्हे प्राप्त है। दूसरा नाम वर्तमान कृषि मंत्री राधामोहन सिंह का है। लेकिन मंत्रालय में उनके वर्तमान प्रदर्शन पर प्रधानमंत्री कार्यालय की नाराजगी उन्हे इस कुर्सी से दूर कर देता है। प्याज और दाल की कीमत कृषि मंत्री को बिहार की कुर्सी से चुकानी होगी। तीसरा नाम संचार मंत्री रविशंकर प्रसाद का है लेकिन उनकी स्थिति लचर है। वर्तमान बीजेपी नेतृत्व को पता है कि वो सबके साथी है और किसी के भी साथी नही है। हर बार शीर्ष नेतृत्व के करीब हो जाना महज संयोग नही हो सकता चाहे शीर्ष पर कोई भी हो। इसके अलावा एक नाम और उभर कर आता है वो है पूर्व प्रदेश अध्यक्ष नंदकिशोर यादव का है। साफ-सुथरी छवि, मेहनती और ईमानदार होना और संगठानात्मक और प्रशासकीय अनुभव उन्हे इस लायक बनाता है। बाकि संगठन और नेतृत्व की तरफ से कोई और नाम आ जाये तो कोई आश्यर्य नही होगा क्योंकि बीजेपी की वर्तमान अवस्था इसके लिये अनुकूल है।

महागठबंधन की ओर से वर्तमान परिस्थिति में नीतीश कुमार तो मुख्यमंत्री के घोषित उम्मीदवार हैं लेकिन परिस्थितियां तब बदल सकती है जब सहयोगी राजद को जदयू से ज्यादा सीटें हासिल हो जाये। चारा घोटाले में सजा होने के बाद राजद प्रमुख ना तो चुनाव लड़ सकते और ना तो किसी संवैधानिक पद पर बैठ सकते। इसलिये अपने दोनो बेटों को चुनाव मैदान में उतार कर अपनी राजनीतिक विरासत का उतराधिकारी उन्हे बना दिया है। इसे आगे बढ़ाने के लिये वो सत्ता की चाभी अपने पास ही रख कर नीतीश कुमार पर हमेशा दबाव बनाये रखना चाहेंगे। नीतीश और महागठबंधन इस दबाव को कितना झेल पायेगा ये तो समय तय करेगा। विधानसभा चुनावों में अब बहुत कम समय बचा है और उम्मीद है कि राज्य की जनता ने तय कर लिया होगा कि बिहार का सिरमौर किसे बनाना है। अब किसके सिर पर ताज सजेगा ये तो 8 नवंबर को ही पता चलेगा।     

मंगलवार, 15 सितंबर 2015

बिहार चुनाव – परिदृश्य – 2

बिहार चुनाव – परिदृश्य – 2

15/09/2015, नई दिल्ली। चुनाव आयोग द्वारा चुनाव की तारीखों के ऐलान से बिहार में चुनावी समर का श्रीगणेश हो गया है। पांच चरण में होने वाले मतदान से इस बार कई मायनो में नये इबारत गढ़े जायेंगे। अक्तूबर में 12,16 और 28 तारीख और नवंबर में 1 और 5 तारीख को मतदान होंगे। परिणाम 8 नवंबर को घोषित किये जायेंगे। निष्पक्ष चुनाव के लिये चुनाव आयोग ने पुख्ता इंतजाम किये है। केंद्रीय सुरक्षा बलों के तकरीबन 50,000 सुरक्षाकर्मी के उपर चुनाव को हिंसामुक्त रखने की विषम चुनौती है। इसबार इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन पर प्रत्याशियों की तस्वीर भी लगी होगी। पेड न्यूज पर इसबार चुनाव आयोग की खास नज़र होगी और इस बावत निर्देश भी जारी कर दिये गये हैं। इसकी निगरानी के लिये जिला, राज्य और मुख्य निर्वाचन अधिकारी के स्तर पर मीडीया सर्टिफिकेशन एंड मॉनिटरिंग कमिटी का गठन किया गया है।

विकास के मुद्दे और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे के साथ एनडीए बिहार में मैदान में है। वहीं नीतीश कुमार के नेतृत्व में महागठबंधन अपने 10 साल के कामकाज के आधार पर वोट मांग रही है। इस बार के चुनाव में पुराने खिलाड़ी नये राजनीतीक समीकरणों के साथ मैदान में है। लोकसभा चुनाव से पहले एनडीए में शामिल हुये लोक-जनशक्ति पार्टी (लोजपा) और राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी (रालोसपा) के साथ भारतीय जनता पार्टी मैदान में है। जातिय समीकरण के हिसाब से इस गठबंधन को और मजबूत करने के लिये एनडीए में जीतनराम मांझी की हिंदुस्तान आवाम मोर्चा (हम) को शामिल किया गया है। मूसहर जाति के मांझी को अपने खेमे में शामिल कर एनडीए ये उम्मीद कर रही है कि महादलित वोटबैंक का एक बड़ा हिस्सा उसके साथ आ जायेगा। करीब साढ़े चार महीने पहले एकीकृत जनता परिवार (जिसमें मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी, नीतीश कुमार नीत जेडी-यू, लालू यादव की राजद, एच डी देवगौड़ा की जेडी-एस, ओम प्रकाश चौटाला की आईएनएलडी और पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय चंद्रशेखर की नेतृत्वविहीन समाजवादी जनता पार्टी सहित छह पार्टियों शामिल थी) की घोषणा कर एनडीए का मजबूत विकल्प तैयार करने की कवायद शुरू हुई लेकिन ज्यादा दूरी तय नही कर पायी। जनता परिवार से मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी के अलग होने से नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले महागठबंधन को वोट प्रतिशत के हिसाब से भले ही कोई नुकसान पहुँचता नही दिख रहा है लेकिन जनता के बीच एक स्पष्ट संदेश तो चला ही गया कि जनता परिवार और महागठबंधन में सब कुछ ठीक नही है। जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री पद से हटाकर महादलित के अपमान का आरोप झेल रहे नीतीश कुमार के लिये इस वोटबैंक की नाराजगी परेशानी का सबब बनी हुई है। ऐसा लगता है कि लालू यादव के राजनीती का आधार रहे मुस्लिम और यादव वोट बैंक भी उनसे दूरी बनाये हुये है। पिछले लोकसभा चुनाव में लालू यादव की पत्नी राबड़ी देवी और बेटी मीसा भारती की हार से ये स्पष्ट हो जाता है। एक सबसे बड़ा आरोप लालू यादव पर परिवारवाद का लग रहा है। इसके पीछे की वजह लालू यादव द्वारा अपने बेटे को उत्तराधिकारी के तौर पर पेश करना है। असदुद्दीन ओवैसी के बिहार में चुनाव लड़ने का ऐलान इस गठबंधन के लिये खासी मुसीबत का सबब बन कर आयी है। हलांकि एमआईएम सिर्फ सीमांचल क्षेत्र में चुनाव लड़ेगी जहां मुस्लिम वोटरों की तादाद अच्छी-खासी है लेकिन महागठबंधन के सबसे मजबूत वोटबैंक का बंटवारा प्रतिद्वंदी एनडीए को फायदा हीं पहुँचायेगा इसमें कोई दो राय नही है। उधर एनडीए के एक और घटक दल शिवसेना ने भी अकेले चुनाव लडने का ऐलान किया है। बिहार में लगभग नगण्य शिवसेना से एनडीए को कोई नुकसान होगा इसकी संभावना नही है और महाराष्ट्र में बिहारियों का विरोध करने का श्रेय भी उनके खाते में है। सीट बंटवारे के मुद्दे पर अपमान के कारण महागठबंधन से अलग हुये शरद पवार की एनसीपी, राजद से निष्कासित पप्पू यादव और कई वाम दल मिलकर एक नये विपक्ष को गढ़ने की कोशिश में लगें है लेकिन इनकी विश्वसनियता बिहार की जनता के नजर में तो नही है। बहरहाल इन सबके किस्मत का फैसला बिहार की जनता करेगी। दीपावली में किसका बम जोर की आवाज करेगा और किसका फुस्स होगा ये तो समय ही बतायेगी। 

बुधवार, 9 सितंबर 2015

राहुल इंतजार करें...

राहुल इंतजार करें...
09 सितम्बर 2015, नई दिल्ली। कल कांग्रेस वर्किंग कमिटी द्वारा पारित एक प्रस्ताव में सोनिया गांधी का कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर कार्यकाल एक साल के लिये बढ़ा दिया गया। श्रीमति गांधी का कार्यकाल दिसंबर में खत्म हो रहा था। इसके साथ ही राहुल गांधी द्वारा कांग्रेस की कमान संभाले जाने की अटकलों पर फिलहाल विराम लग गया है। देश की सबसे पुरानी पार्टी को अभी भी उसके सबसे लंबे समय तक कार्यरत अध्यक्ष की सेवाओं की जरुरत है। शायद कांग्रेस के युवराज को पार्टी ने अभी इस लायक नही समझा कि उन्हे कमान सौंप दी जाये और उन्हें और परिपक्व होने का मौका दिया जाना चाहिये। पिछले छह महीने के दौरान सोनिया ने जिस तरह से संसद के भीतर और बाहर मोर्चा संभाला है उससे तो ये साफ हो जाती है कि कांग्रेस की डूबती नैया को उबारने का माद्दा अभी  उनमें है। पिछले लोकसभा चुनाव में अब तक के न्यूनतम स्तर पर आने के बाद ये लगने लगा कि कांग्रेस को कोई करिश्माई ताकत ही बचा पायेगी क्योंकि राहुल गांधी में वो बात नजर नहीं आ रही थी। भूमि अधिग्रहण बिल पर जिस तरह से सरकार को कांग्रेस ने संसद में मजबूर कर दिया वो सोनिया गांधी का नेतृत्व ही था। 14 विपक्षी दलों को एकजूट कर संसद की कार्यवाही बजट और मानसून सत्र में ना चलने देने का करिश्मा राहुल के वश की बात नही थी और शायद वे उनके नेतृत्व को स्वीकार भी नही करते। महज 44 सीटों पर सिमट चुकी कांग्रेस के लिये ये दौर किसी मुसीबत से कम नही है लेकिन इस दौर में पार्टी का नेतृत्व पर भरोसा कायम रहे बड़ी बात है। वैसे ये वो कांग्रेस पार्टी नही है जिसमें कई कद्दावर और जमीनीस्तर के नेता हुआ करते थे। अब जो नेता कांग्रेस में मौजूद है उनमे से किसी में इतनी कूव्वत नही है कि नेतृत्व के किसी भी फैसले पर सवाल खड़े कर सकें। आज कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती पार्टी और संगठन को मजबूत करने की है और इसके लिये प्रयास शुरू भी हो गये हैं। राहुल गांधी को इस बात की जिम्मेदारी भी दी गयी है। पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं का मानना है कि राहुल इस काम के जरिये पार्टी पर और पकड़ बना पायेंगे और सोनिया गांधी बिहार जैसे राज्य, जहां पार्टी बदतर हालात में है, में अन्य दलों के साथ मिलकर पार्टी को मजबूती प्रदान करेंगी। पार्टी के भीतर एक और मुद्दा है जो हावी है और वो है वरिष्ठ और पुरानी पीढ़ी के नेता जो सोनिया के साथ सहज महसूस करते है तथा नये नेता जो राहुल के साथ अपने को जोड़कर चलते है। राहुल को अध्यक्ष पद पर बिठाने की जल्दबाजी उन्हे है जो सरकार और पार्टी में राहुल कोटे से पदासीन थे, लेकिन पार्टी के ज्यादातर धड़े सोनिया को ही अध्यक्ष देखना चाहते है। पार्टी में किसी तरह की जोर-आजमाइश से बचने के लिये दोहरे नेतृत्व की नीति पर चलने की कवायद हो रही है। राहुल की ताजपोशी आज नही तो कल होनी तय है लेकिन सारी कवायद इस बात की है कि पार्टी के किसी भी असफलता के लिये उन्हे जिम्मेदार ना ठहराया जाये। बिहार में चुनाव सामने है और वहां कांग्रेस की हालत किसी से छिपी नही है। अगले साल असम, केरल, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और पुड्डुचेरी में चुनाव होने हैं। कांग्रेस असम और केरल में सत्ता में है लेकिन असम में सत्ता वापसी की संभावना क्षीण है। केरल में यूडीएफ जिसका नेतृत्व कांग्रेस कर रही है, भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरी है लेकिन पार्टी को उम्मीद है कि बीजेपी (जो वामदलों के क्षेत्र में तेजी से पैठ बना रही है) के डर से जनता वापस उसे एक और मौका देगी। तमिलनाडू, पश्चिम बंगाल और पुड्डुचेरी में कांग्रेस सत्ता की दौड़ से बाहर है। ऐसे में कांग्रेस नही चाहती कि राहुल के अध्यक्ष बनते हीं इन नाकामियों से सामना हो और सारा श्रेय उनके हीं खाते में आये। शायद ये वो वजह है जिसके कारण राहुल को अगले एक साल तक और इंतजार करना होगा। इंतजार............!

शुक्रवार, 28 अगस्त 2015

(Bihar Election-An Perspective) बिहार चुनाव के परिदृश्य

बिहार चुनाव के परिदृश्य
28 अगस्त। बिहार विधान सभा चुनाव इस बार काफी रोचक होता जा रहा है। आठ साल बीजेपी के साथ सरकार चलाने के बाद नीतीश कुमार इस बार लालू यादव और कांग्रेस के साथ कंधा से कंधा मिलाकर चलने को तैयार है। समाजवादी पार्टी, जद-यू और राजद समेत 6 पार्टियों के इस गठजोड़ का पहले विलय होना तय हुआ था लेकिन विलय पर आपसी सहमति नही बन पाने के कारण महागठबंधन का नाम दिया गया। वहीं बीजेपी अपने एनडीए पार्टनर लोजपा और रालोसपा के अलावे जीतन राम मांझी की हिंदुस्तान आवाम मोर्चा के साथ मैदान में है।
हाल के दिनों में बिहार के मुख्यमंत्री की दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल से बढ़ती हुई करीबी राजनीतिक हलको में चर्चा का विषय बनी हुई है। इस करीबी के कई मायने निकाले जा सकते है। पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी ने बिहार में सभी सीटों पर चुनाव लड़ा था और परिणाम जगजाहिर है। लोकसभा चुनाव 2014 में केजरीवाल ने नीतीश कुमार और लालू यादव पर जम कर हमला बोला था और बिहार की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार ठहराया था। पिछले एक साल में ऐसा क्या करिश्मा हुआ कि केजरीवाल के लिए वही नीतीश कुमार विकास पुरूष लगने लगे है?

इस सवाल के कई मायने और मतलब हो सकते है, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आज की तारिख में दोनो की राजनीती एक ही मुद्दे पर टिकी हुई है और वो है मोदी विरोध और अल्पसंख्यको का मसीहा बनने का। लोकसभा चुनाव के पहले से ही नीतीश मोदी के मुखर विरोधी रहे हैं और बीजेपी से गठबंधन भी इसी वजह से तोड़ा था। बिहार के मुख्यमंत्री को ये डर था कि अगर मोदी को नेता स्वीकारते है तो वो अल्पसंख्यक वोट बैंक से हाथ धो बैठेंगे और दूसरा ये कि वो खुद को भावी प्रधानमंत्री के तौर पर देख रहे थे। खुद को बदलाव और स्वच्छ राजनीती का चैंपियन मानने वाले केजरीवाल की पूरी राजनीती भाजपा और कांग्रेस के विरोध से शुरू हुई लेकिन बाद में वो कांग्रेस के साथ 49 दिन की सरकार बैठे। इस साल के दिल्ली विधानसभा चुनाव में केजरीवाल का मुख्य मुद्दा बीजेपी का विरोध रहा। दिल्ली में सरकार बनने के बाद से ही मुख्यमंत्री केजरीवाल लगभग हर मुद्दे पर केंद्र से टकराव का रूख अख्तियार किये हुए है। शायद यही वो वजहें है जो दोनो नेताओं को करीब ले आइ है। केजरीवाल की चुनावी सफलता में अहम योगदान प्रवासी बिहारी वोटरों का रहा है और नीतीश को ये लगता है कि आप के मुखिया के जरिये उन वोटरों और उनके घर-परिवार और रिश्तेदारों में पैठ बनाकर बिहार का किला फतह कर लेंगे। परिणाम तो आने वाला वक़्त हीं तय करेगा। 

गुरुवार, 16 अप्रैल 2015

महापर्व छठ

महापर्व छठ
संपूर्ण भारत में सूर्य के उपासना का महापर्व छठ पूरे धूम-धाम से मनाया जा रहा है। डाला छठ, सूर्य षष्ठी, छठी मईया, छठ पूजा जैसे कई नामों से विख्यात इस पर्व में प्रकृति के साक्षात् देव सूर्य की पूजा की जाती है। सूर्य देव को पवित्र जल द्वारा पूजित कर जीवन के आधारभूत दो तत्वों के सामंजस्य के महत्व को स्थापित किया जाता है। केवल पूर्वांचल में कभी प्रचलित रहे इस पर्व को अब पूरे भारत वर्ष में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी मनाया जाता है। साल 2015 में यह पूजा 15 नवंबर से लेकर 18 नवंबर तक मनाया जाएगा। लोकआस्था के इस पर्व को संपूर्ण बिहार, झारखंड एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश में मुख्यतः मनाया जाता था। बदलते समय के साथ पूर्वांचल वासियों के प्रवास ने इस पर्व को संपूर्ण भारत के अलावा विदेश के कई हिस्सों में भी प्रसारित किया है।

जनता परिवार विलय - जनता के लिए कितना?

नई दिल्ली - जनता परिवार के 6 दलों द्वारा विलय की घोषणा के बाद तीसरे मोर्चे की सुगबुगाहट फिर से शुरू हो गयी है।  मुलायम सिंह यादव की अगुवाई में समाजवादी पार्टी, जनता दल- सेक्युलर, जनता दल- यूनाइटेड, राष्ट्रीय जनता दल , समाजवादी जनता पार्टी और इंडियन नेशनल लोक दल ने अपने विलय की घोषणा करते हुए भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के खिलाफ नयी जंग छेड़ने का ऐलान किया।  मुलायम सिंह यादव ने कहा कि  इस केंद्र सरकार ने जनता के लिए कुछ नहीं किया है।  लालू यादव ने कहा कि हम पूरे देश का दौरा करेंगे और जनता से सीधे संवाद करेंगे।  इन सब के बीच असली सवाल यह है कि क्या जनता परिवार वाकई में जनता के लिए एकजुट हुई है ?
अगर हम सभी बातों और परिस्थितियों पर गौर करे तो ये महसूस होता है कि ये एकता जनता के लिए नहीं बल्कि अपने वजूद को बनाये रखने के लिए इन पार्टियों की आखिरी कोशिश है।  लोकसभा चुनाव 2014 के बाद  सभी दलों की हालत लगभग एक जैसी है।  उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी 2009 के अपने 23 सीटों के आंकड़े से 5 पर सिमट गई और जदयू अपने 20  सीटो की तुलना में 2 पर आ गयी। इन हालात में सभी क्षत्रपों के लिए अपने वजूद को बचाये रखने की जरुरत थी जिसका परिणाम इस विलय के रूप में सामने आया है। 
इन दलों के विलय के आगामी चुनावों में जो भी नतीजे हों लेकिन संसद के भीतर खासकर राज्यसभा में इससे सत्ता पक्ष की मुश्किलें बढ़ेगी। राज्यसभा में सीटों  की कमी से जूझ रहे एनडीए के लिए यह गठजोड़ और मुश्किलें पैदा करेगा। इन छह में से पांच दलों की राज्यसभा में मौजूदगी है और उनकी कुल संख्या 30 है। राज्यसभा में एनडीए के पास कुल 64 सीटें  है जिसमे बीजेपी की अकेले 47 सीटें हैं। जबकि प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस की अकेले 68 सीटें हैं। भूमि अधिग्रहण विधेयक समेत कई मुद्दों पर जनता परिवार से जुड़े दल हाल में एकसाथ नजर आए हैं और विलय के बाद यह रुख आगे भी कायम रहेगा।  विशेष परिस्थितियों में सरकार के लिए छोटे-मोटे दलों को अपनी ओर लेना आसान होता है लेकिन एक हो चुके जनता परिवार का सहयोग लेने में मुश्किल होगी।
इस परिवार की सबसे पहली चुनौती अक्टूबर 2015 में होने वाला बिहार विधान सभा चुनाव होगा।  लोकसभा चुनाव में राजद और जदयू का मिलाजुला वोट शेयर 36 प्रतिशत का था, जो की भाजपा के 30 प्रतिशत से कहीं ज्यादा है, और लालू यादव और नितीश कुमार इसी बात पर इतराते फिर रहे है की एकबार फिर से सत्ता उनके हाथ ही आयेगी। गौरतलब है कि लालू और नितीश आज जहाँ भी हैं उसमे एक बड़ी वजह एक दूसरे का विरोध रहा है।  अब विलय के पश्चात सबसे बड़ा प्रश्न ये है कि इस दोनों के परस्पर विरोधी वोट बैंक जिसकी वे राजनीती करते आये है, का विलय हो पायेगा?
लालू का आधार वोट अगर यादव और अगड़े मुसलमानों में रहा है तो नीतीश कुमार का अतिपिछड़ा, महादलित, पिछड़े मुसलमान और सवर्ण में। लोकसभा चुनावों में भाजपा अतिपिछड़ा वोटों में सेंध लगाने में कामयाब रही थी। वहीं मुस्लिम मतदाताओं का वोट कम पडा़ था। दोनों के साथ आने से न केवल चुनाव में पिछड़ा गोलबंदी के बल्कि अल्पसंख्यक वोटरों के उत्साह से वोट करने के आसार भी बढ़ गए हैं।
भाजपा की कोशिश यह भी है कि वह जीतनराम मांझी के प्रकरण को महादलित अपमान करार देकर जदयू के महादलित वोट में सेंध लगाए। माना जा रहा हैं कि मांझी सभी 243 सीटों पर उम्मीदवार देकर जदयू के वोट में सेंध लगाने की रणनीति अपनाएंगे। इसका फायदा भाजपा को होगा।

वैसे समाजवादी पार्टी के अंदरूनी सूत्र बताते है कि कई बड़े सपाई नेता इस विलय से खुश नहीं है और रामगोपाल यादव की गैरमौजूदगी इस बात को पुख्ता करती है।  सपाई को सपा के पहचान की चिंता है और सपाई छह रहे है की झंडा, निशान और नाम पर सपा का ही वर्चस्व रहे।  सपाइयों का तर्क ये है की नए परिवार से उत्तर प्रदेश को कोई फायदा नहीं होगा और प्रतिक चिन्ह बदल गए तो कार्यकर्ताओं को जोड़ना मुश्किल होगा।