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रविवार, 21 जुलाई 2024

डा. हेडगेवार और जंगल सत्याग्रह- संघ और स्वतंत्रता संग्राम

डा. हेडगेवार और जंगल सत्याग्रह


स्वाधीनता आंदोलन में 1930 के ‘नमक सत्याग्रह’ का बड़ा महत्व है। देश भर में यह आंदोलन हुआ था। जहां समुद्र नहीं थे, वहां किसी भी जनविरोधी कानून को तोड़कर लोगों ने सत्याग्रह किया। मध्यभारत तथा महाराष्ट्र आदि में इसे ‘जंगल सत्याग्रह’ कहा गया। चूंकि वहां सरकार बिना अनुमति किसी को जंगल से घास भी नहीं काटने देती थी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डा. हेडगेवार भी 21 जुलाई, 1930 को इसमें सहभागी हुए। 12 जुलाई को एक गुरुदक्षिणा कार्यक्रम में डा. जी ने सत्याग्रह की बात कही तथा वापसी तक डा. परांजपे को सरसंघचालक की जिम्मेदारी सौंपी। 14 जुलाई को वे साथियों सहित रेलगाड़ी से वर्धा गये। अगले दिन वहां श्रीराम मंदिर में स्वागत समारोह तथा शोभायात्रा हुई। क्रमशः पुलगांव, धामड़गांव होते हुए वे ‘पुसद’ पहुंचे; पर वहां सत्याग्रह पहले ही शुरू हो चुका था। अतः संचालकों ने उनसे 21 जुलाई को यवतमाल में सत्याग्रह का शुभारंभ करने को कहा; पर इसमें कई दिन बाकी थे। अतः खाली बैठने की बजाय डा. जी पुसद और आसपास के क्षेत्र में प्रचार और संपर्क करने लगे। एक दिन सुबह जब वे नदी से लौट रहे थे, तो उन्होंने देखा कि एक मुस्लिम गाय काटने जा रहा है। उनके विरोध पर अन्य कसाई भी आ गये। डा. जी ने उन्हें गाय की कीमत देनी चाही; पर वे नहीं माने। बात बढ़ने पर लोगों ने बीचबचाव किया। एक ने कहा कि आप जंगल सत्याग्रह के लिए आये हैं, तो इस चक्कर में न पड़ें। डा. जी ने गोरक्षा को भी जंगल सत्याग्रह जैसा ही महत्वपूर्ण कहा। इतने में पुलिस आकर दोनों पक्षों को थाने ले जाने लगी। डा. जी तो तैयार थे; पर कसाई डर गये। उन्होंने 30 रु. में गाय छोड़ दी। डा. जी ने वह गोरक्षा सभा को दे दी। इससे सब ओर उनका नाम चर्चित हो गया। शाम की सभा में भारी भीड़ के बीच डा. जी ने कहा कि स्वाधीनता के लिए अंग्रेजों के जूते पाॅलिश से लेकर उनके सिर पर जूते मारने जैसे सब काम करने को मैं तत्पर हूं। अगले दिन सब यवतमाल आ गये। कई स्वयंसेवक गणवेश पहनकर सत्याग्रह करना चाहते थे; पर डा. जी ने उन्हें स्वयंसेवक की बजाय आम नागरिक की तरह सत्याग्रह करने को कहा। 21 जुलाई को रणसिंघे के घोष के साथ निकली शोभायात्रा में 4,000 लोग शामिल थे। नगर भवन के मैदान में ध्वजवंदन के बाद जत्थे के नेता डा. जी को चांदी का तथा बाकी को सामान्य हंसिए दिये गये। रुई मंडी होते हुए सत्याग्रही पैदल, साइकिल, बैलगाड़ी तथा मोटर आदि से निर्धारित स्थान (यवतमाल से दस कि.मी दूर लोहारा जंगल) में पहुंचे। पहले से सूचना के कारण पुलिस वहां थी ही। लगभग 10,000 लोग भी सत्याग्रह देखने आये थे। पुलिस वालों ने अनुमति की बात पूछी; पर वे तो सत्याग्रह करने आये थे। अतः वे जंगल में घुसकर घास काटने लगे। इस पर पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर यवतमाल के न्यायालय में प्रस्तुत किया। डा. जी को धारा 117 में छह तथा धारा 379 में तीन (कुल नौ मास) तथा शेष 11 को चार महीने की सजा हुई। शाम को उन्हें रेलगाड़ी से अकोला ले जाया गया। पूरे रास्ते हर स्टेशन पर लोग फल, फूल और मिष्ठान लेकर आते थे। डा. जी वहां कुछ देर भाषण भी देते थे। इस प्रकार रात में वे अकोला तथा अगले दिन जेल में पहुंच गये। अगले दिन 22 जुलाई को नागपुर के स्वयंसेवक शाखा पर एकत्र हुए। वहां डा. जी के साथ गये एक स्वयंसेवक ने पूरी जानकारी दी। सरसंघचालक डा. पराजंपे ने डा. जी द्वारा काटी गयी घास ध्वज के सम्मुख अर्पित की। जेल में अच्छे व्यवहार के कारण डा. जी समय से पूर्व 14 फरवरी, 1931 को ही छोड़ दिये गये। 17 फरवरी को वे नागपुर पहुंचे, जहां उनका भव्य स्वागत हुआ। डा. परांजपे ने उन्हें फिर से सरसंघचालक का पदभार सौंप दिया।

सोमवार, 21 सितंबर 2015

आरक्षण – समीक्षा की कितनी जरूरत

आरक्षण – समीक्षा की कितनी जरूरत
21/09/2015, नई दिल्ली। आज दक्षिणी दिल्ली के एक निजी अस्पताल में अपनी माता जी के इलाज के सिलसिले में गया था। वहां सुरक्षा इंतजाम में लगे एक प्रवासी बिहारी रमेश सिंह से मुलाकात हो गई। रमेश एक निजी कंपनी में सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी करते हैं और उनकी तैनाती उस अस्पताल में है। बातचीत के दौरान पता चला कि वो बिहार के एक राजपूत परिवार से ताल्लुक रखते हैं। इस दौरान रमेश ने ये भी बताया कि वो बहुत हीं कम पैसों के लिये 12 घंटे की नौकरी करते हैं। सवाल ये है कि आखिर रमेश जैसे लोग बिहार से आकर कम पैसों में काम करने को मजबूर क्यों है? जवाब तो स्पष्ट है कि एक तो बिहार में अवसरों की कमी और दूसरी आरक्षण की समस्या उन्हे ऐसा करने पर मजबूर कर रही है।
इसी बीच रविवार को राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा कि देश में आरक्षण नीति की समीक्षा की जानी चाहिये। उन्होने कहा कि अब इसका राजनीतिक उपयोग किया जा रहा है। आरक्षण की समीक्षा के लिये एक गैर राजनीतिक समूह का गठन किया जाना चाहिये जो यह तय करे कि किस आरक्षण की आवश्यकता है और कितने समय तक के लिये। इस पर बीजेपी के कई सांसदो ने विरोध में प्रतिक्रिया दी तो कांग्रेस ने भागवत के बयान का समर्थन किया। अन्य विपक्षी दलों ने इसपर कड़ा ऐतराज जताते हुए संघ प्रमुख की आलोचना की। संघ प्रमुख के इस वक्तव्य के आलोक में सवाल ये उठता है कि क्या वाकई में आरक्षण पर विचार की जरूरत है।
चलिये इस पर विचार करते हैं। आरक्षण लागू करते समय संविधान निर्माताओं ने इसे सीमित अवधि तक ही लागू करने की बात कही थी लेकिन राजनैतिक कारणों से इसका विस्तार होता रहा। हद तो तब हो गई जब 1991 में तत्कालीन वीपी सिंह सरकार ने मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करते हुए अन्य पिछड़ी जातियों को आरक्षण के दायरे में शामिल किया। इससे आरक्षण का प्रतिशत 50 से भी ज्यादा हो गया। यह फैसला कितना सही था इस पर हम फिर कभी चर्चा करेंगे। फिलहाल हमें ये विचार करने की जरूरत है कि आखिर आरक्षण से किसका भला हुआ है? आजादी के 67 साल बाद परिस्थितियां और भयावह हो गई है। आरक्षण का प्रतिशत तो बढ़ गया लेकिन इसका फायदा गरीबों को पहले से कमतर मिल रहा है। शायद भारत दुनिया का इकलौता देश होगा जहाँ जातिगत आधार पर आरक्षण का लाभ दिया जाता है। इस तरह के आरक्षण का लाभ कुछ वर्ग विशेष तक सीमीत रह जाता है। हर जाति में कुछ ऐसे लोग है जो इसका लाभ अपने किसी जाति विशेष में पैदा होने के कारण लेते है जबकि उनकी स्थिति उस जाति के बहुसंख्यक लोगो से कहीं बेहतर होती है। जाति विशेष में जो आर्थिक तौर पर विपन्न लोग हैं वो इसका लाभ बहुत कम या नही के बराबर उठा पाते हैं जबकि उसी जाति के आर्थिक रूप से संपन्न या लोग इसका अधिकतम लाभ उठाते हैं। इस तरह से उस जाति में गरीबों की स्थिति जस की तस रह जाती है। विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या जाति विशेष में उन संपन्नों को आरक्षण का लाभ मिलना चाहिये? मेरा जवाब तो ना है। दूसरी परिस्थिति यह है कि जो आरक्षित जातियां नही है उनमें एक बड़ा तबका गरीबी से जूझ रहा है। राजपूत, ब्रह्मण, भूमिहार और कायस्थ जैसी जातियों में गरीबी तेजी से बढ़ी है। आबादी बढ़ने के साथ प्रतिव्यक्ति खेती की जोतने योग्य भूमि का कम होता जाना, नौकरियों में लगातार कम होते अवसर ने इस गरीबी को बढ़ावा दिया है। इन जातियों में गरीबी के कारण एक बड़ा तबका अपना भरण-पोषण करने में अपने को असमर्थ महसूस करता है। विडंबना ये है कि गरीब और असहाय होने के बावजूद उन्हें आरक्षण का लाभ नही मिलता क्योंकि वो अगड़ी जाति में पैदा हुए हैं। आर्थिक तौर पर पिछड़े होने के बावजूद सरकार की आरक्षण से जुड़ी योजनाओं का लाभ नही मिल पाता क्योंकि वो जाति विशेष में पैदा हुए है।

इन सब बातों से तो यही निकलकर आता है कि आज सरकार आरक्षण की जिस नीति को ढ़ो रही है उसकी समीक्षा की वाकई जरूरत है। जब देश की आबादी 125 करोड़ के पार पहुँच गई है और गरीबी के मिटने के कोई आसार नजर नही आते, ऐसे में हमें आँखे खोलकर देखने की जरूरत है ना कि आँखों पर पट्टी बांधे रखने की। सोचिये जरा.....