भारत – कितना धर्मनिरपेक्ष?
24/09/2015, नई दिल्ली। आज टीवी पर एक
वाद-विवाद देख रहा था जिसमें चर्चा हो रही थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने
आयरलैंड में विपक्षी दलों की धर्मनिरपेक्षता पर कटाक्ष किया है। आयरलैंड में प्रधानमंत्री
के सम्मान में आयोजित एक कार्यक्रम में आयरिश बच्चों ने संस्कृत में श्लोक पढ़े और
स्वागत गान गाये। प्रधानमंत्री ने इस पर कहा कि हम आयरलैंड में तो ऐसा कर सकते हैं
लेकिन भारत में करते तो शायद धर्मनिरपेक्षता खतरे में पड़ जाती। एक बात तो सत्य है
कि हमारी सभ्यता और संस्कृति के उत्थान में संस्कृत भाषा क योगदान सबसे अधिक है। वैज्ञानिक
आधार पर दुनिया की प्राचीनतम भाषा में से एक होने का गौरव जिसे प्राप्त है उस भाषा
को उसके उद्गम स्थल पर वो सम्मान अब तक नही मिल पाया है जिसकी वो हकदार है। खैर हमारा
इस विषय पर बात करने का उद्देश्य है कि आखिर विदेश में प्रधानमंत्री को यह बात
कहने की जरूरत क्यों पड़ी?
संविधान निर्माताओं ने संविधान बनाते समय
इसके द्वारा देश को धर्मनिरपेक्ष नही रखा था। 17 अक्टूबर 1949 को संविधान सभा में
प्रस्तावना पर बहस के दौरान इसके सदस्य ब्रजेश्वर प्रसाद द्वारा इस आशय का
प्रस्ताव किया गया था। लेकिन संविधान सभा ने इसे सिरे से खारिज कर दिया था। साल
1976 में 42 वें संविधान संशोधन विधेयक द्वारा तत्कालीन कांग्रेस पार्टी की सरकार,
जिसकी प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गांधी थी, ने संविधान के प्रस्तावना में इसे
जोड़ा। गौरतलब है कि उस समय देश में आपातकाल लागू था। इस विधेयक की धारा (2) के
जरिये प्रस्तावना में "SOVEREIGN DEMOCRATIC
REPUBLIC" के स्थान पर "SOVEREIGN SOCIALIST
SECULAR DEMOCRATIC REPUBLIC" जोड़ा गया। सन् 1950 से लेकर 1976 तक कभी ऐसी जरूरत
महसूस नही हुई कि देश को सोशलिस्ट और सेक्युलर होना चाहिये। फिर ऐसी क्या मजबूरी थी
कि तत्कालीन कांग्रेस सरकार को संविधान की प्रस्तावना में ये दो शब्द जोड़ने की
जरूरत पड़ी। जवाब शायद तब तक देश के बदले हुये हालात से मिलेगा। तुष्टीकरण की राह
पर चल पड़ी कांग्रेस सरकार ने वोट बैंक पॉलिटिक्स के चक्कर में अल्पसंख्यक समुदाय
को खुश कर अपने पाले में करने के लिये शायद संविधान की आत्मा तक को बदलने में कोई
कोताही नही बरती। सवाल उठता है कि देश क्या वाकई में धर्म निरपेक्ष है? पहले हमें शब्द धर्मनिरपेक्षता
के समझना होगा। सीधे शब्दों में धर्मनिरपेक्षता का मतलब धर्म के प्रति निरपेक्ष अथवा
तटस्थ होना होता है। संविधान में इसका मतलब संवैधानिक संस्थाओं द्वारा धर्म के
प्रति तटस्थ होना है लेकिन क्या हमारा संविधान अल्पसंख्यको को धर्म के आधार पर कुछ
रियायत नही बरतता? जवाब आप भी जानते हैं। धर्मनिरपेक्षता के तत्वों में राज्य
के संचालन एवं नीति-निर्धारण में धर्म का हस्तक्षेप नही होनी चाहिये और सभी धर्म
के लोग कानून, संविधान एवं सरकारी नीति के आगे समान है। क्या
वाकई इस देश में इस तरह की परिस्थितियां है? एक और अहम बात है कि सहिष्णुता
धर्मनिरपेक्षता का आधार है। देश में जो आज हालात है क्या हम कह सकते हैं कि सहिष्णुता
हमारे समाज में पूर्वकाल की तरह मौजूद है। देश में धार्मिक आधार पर होते दंगे क्या
इस बात के सबूत नही है कि हमारा देश अब सहिष्णुता के दौर से आगे निकल आया है।
क्यों और किस वजह से मैं इसमें नही जाना चाहता लेकिन इतना कहना चाहता हूँ कि इसके
लिये देश की राजनैतिक ताकतें जिम्मेदार हैं। पूरी दुनिया में शायद भारत एकमात्र
ऐसा देश है जहां समाज धर्म और जातियों के आधार पर इतने हिस्सों में बंटा है कि सामाजिक
ताना-बाना ही बिखर कर रह गया है। देश के बहुसंख्यक को इस तरह से कमजोर कर दिया गया
है कि समाज में वो सिमट बंट कर रह गये हैं। एक बात और ये है कि देश में
अल्पसंख्यकों को जितने अधिकार प्राप्त है उतना दुनिया के किसी सभ्य और विकसित देश
में उपलब्ध नही है। समस्या यह है कि देश में कुछ छद्म धर्मनिरपेक्ष लोग हैं जो इस
संवैधानिक व्यवस्था का लाभ उठाकर अपनी रोटी सेंकने में लगे रहते है चाहे समाज का कितना
भी नुकसान क्यों ना हो जाये। आज देश को जरूरत है इन छद्म धर्मनिरपेक्ष लोगों से
होशियार रहने की ताकि देश की एकता और अखंडता कायम रह सके।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें