मंगलवार, 17 नवंबर 2015

मोदी विरोध पर विपक्षी एकता

मोदी विरोध पर विपक्षी एकता
17 नवम्बर 2015, नई दिल्ली। बिहार विधानसभा चुनाव 2015 में भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए को मिली करारी हार ने भारतीय राजनीति में नए समीकरण बनने के संकेत दिए है। महागठबंधन, जिसमें क्षेत्रीय दलों जदयू और राजद के साथ राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस शामिल थी, ने बिहार में जातिवाद के नए आयाम कायम करते हुए शानदार जीत हासिल की और एनडीए के सबका साथ, सबका विकास के साथ जातिय समीकरण के तिलस्म को चकनाचूर कर दिया। इस परिणाम के बाद केंद्र में सत्तारूढ़ बीजेपी में आरोप-प्रत्यारोप के साथ मंथन का दौर जारी है क्योंकि ये एक साल के भीतर मिली दूसरी हार है। दिल्ली में हार पर जितने सवाल खड़े किए गए उससे कहीं ज्यादा बिहार में मिली हार पर प्रतिक्रिया हो रही है। आने वाले समय में केंद्र सरकार के साथ-साथ बीजेपी के अंदर कई बड़े फेरबदल देखने को मिल सकतें हैं।
बिहार चुनाव में मिली जीत का श्रेय तीनों पार्टियों जदयू, राजद और कांग्रेस की एकजुट होकर लड़ने को दिया जा रहा है और इस बात में दम भी है। इस चुनाव में जदयू को 16.8%, राजद को 18.4% और कांग्रेस को 6.7 प्रतिशत मत मिले है। अगर इन सबको मिला दिया जाए तो 41.9 प्रतिशत मत बनते हैं। वहीं एनडीए की बात की जाये तो बीजेपी को 24.4%, लोजपा को 4.8%, रालोसपा को 2.6% और हम(से) को 2.3% वोट मिले है। इन सबका कुल योग 34.1 प्रतिशत ही बनता है। फर्क साफ है कि विपक्ष एकजुट होकर एनडीए पर भारी पड़ा और यह गणित साफ और स्पष्ट है। वैसे तो कई और कारण इस हार के बताए जा रहें है मसलन मोदी का जादू खत्म हो जाना, विकास के एजेंडे का काम ना आना, आरक्षण पर संघ प्रमुख का बयान, अध्यक्ष के रूप में अमित शाह की कार्यशैली और गोमांस पर विवाद जैसे कई मुद्दे। लेकिन ये सारे मुद्दे उपरोक्त जातिय समीकरण के आगे बौने साबित हुए नतीजा सबके सामने है महागठबंधन की जीत के रूप में।

बिहार चुनाव के गणित के महत्व को अब पूरे देश के अलग-अलग कोने में अपना स्वार्थ साध रहे क्षेत्रीय दल भी समझने लगे हैं। अगले साल 2016 में पाँच राज्यों असम, पश्चिम बंगाल, केरल, पुड्डुचेरी और तमिलनाडु में चुनाव होने हैं। असम में कांग्रेस और केरल में कांग्रेस के नेतृत्व में गठबंधन की सरकार है। असम में भाजपा की स्थिति काफी मजबूत मानी जा रही है और कांग्रेस के खिलाफ लोगों में गुस्सा भी है। वहां कांग्रेस को एआइयूडीएफके के अलावा अन्य दलों साथ हाथ मिलाना शायद मजबूरी बन जाए। केरल में भाजपा की उपस्थिति तो है लेकिन मजबूत नही। वहीं पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की तृणामूल कांग्रेस सरकार में है जिसे भाजपा के रूप में मजबूत विपक्ष का सामना करना है। वहां कम्यूनिस्ट पार्टी तीसरे नंबर पर रहकर अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है और वो सत्तारूढ़ तृणामूल के साथ गठबंधन करने के विकल्प के बारे में गंभीरता से विचार कर रही है। तमिलनाडु में सत्तारूढ़ अन्नाद्रमुक को भी विरोधी लहर का सामना करना पड़ेगा। वहां उसे चुनौती देने के लिए द्रमुक के अलावा भाजपा भी ताल ठोक रही है। आने वाले चुनाव में भाजपा से मुकाबले के लिए अन्नाद्रमुक और द्रमुक अगर गठबंधन कर चुनाव में एक साथ खड़े नजर आए तो कोई आश्चर्य की बात नही होगी। पुड्डुचेरी में आल इंडिया एनआर कांग्रेस को अंदर और बाहर दोनो तरफ से चुनौती का सामना करना पड़ेगा। कुल मिलाकर सभी जगह पर घमासान है सत्ता के लिए और इन सबके केंद्र में है भाजपा। साल 2017 में गोवा, मणिपुर, पंजाब, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में चुनाव होने है। उत्तर प्रदेश में भी भाजपा सत्ताधारी समाजवादी पार्टी के लिए परेशानी का सबब बन रही है और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपने धुरविरोधी बसपा से हाथ मिलाने के संकेत दिए हैं। हलांकि उनकी पार्टी के ही एक वरिष्ठ नेता आजम खान ने खुले शब्दों में इसको नकार दिया है लेकिन ये तो आने वाला समय ही तय करेगा कि उत्तर प्रदेश में महागठबंधन होगा या नही।
इस तरह से समूचे देश में मोदी विरोधी एकजूट होने के प्रयास में है। जदयू को ताजा मिली सफलता ने उसे ये सोंचने पर मजबूर कर दिया है कि अब राष्ट्रीय स्तर पर वो मोदी विरोध की धुरी बन सकता है और समूचे विपक्ष को लामबंद कर सकता है। यह नीतीश कुमार की महत्वकांक्षा भी रही है और इसी महत्वकांक्षा को लेकर वो एनडीए से अलग भी हुए थे। अब देखना ये है कि वो अपने इस प्रयास में कितने सफल हो पाते हैं।

बहरहाल देश में विकास एक गौण मुद्दा है जिसकी परवाह विपक्षी दलों को बिल्कुल नही है। उनको लगता है कि अगर विकास हो गया तो उनका महत्व या अस्तित्व खत्म हो जायेगा। अगर लोग जात-पात और धर्म से उपर उठ कर सोंचने लगे तो लालू, नीतीश जैसो की राजनीति खत्म हो जायेगी। ये वो वजह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विरोध जरूरी है क्योंकि वो विकास करना चाहते हैं और इसके लिए प्रयासरत हैं। इस देश का और इस देश के नागरिकों का इससे बड़ा दुर्भाग्य नही हो सकता कि निहित स्वार्थवश इस विकास के क्रम को रोक दिया जाए जो इस देश को 67 सालों के बाद मिला है।

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