गुरुवार, 2 जनवरी 2025

प्रभु की महिमा

एक आदमी रोज़ मंदिर जाता और कई घंटे पूजा करता और भगवान से कहता- हे प्रभु, मेरे दुख कम कब होंगे? मैं तो रोज़ तेरी पूजा करता हूँ, फिर भी इतने दुख भोगता हूँ और वहीं अन्य लोग जो तेरी कभी पूजा नही करते, फिर भी उन्हे किसी तरह की कोई कमी नही वो सदा ही खुशहाल रहते हैं ऐसा क्यूँ ? ऐसा तो बिल्कुल नही होना चाहिए?

इस तरह वह निरंतर संताप व अवसादग्रस्त रहता और कुढ़ता रहता। इस तरह व्यतीत करते उस मनुष्य का बुढ़ापा आ गया और एक दिन जब वो फिर घर से मंदिर के लिए निकला तो फिर से दूसरों को सुखी देख कर अवसादग्रस्त होके दुखी हो गया।

उसने ठान लिया कि आज वो पता लगाएगा की भगवान हैं भी की नही क्यूंकी यदि होते तो उसकी प्रार्थना अवश्य सुनते। ये सोचते हुए वो मंदिर जाने वाले हर आदमी से घुमा फिरा कर एक ही बात पूछने लगा की भैया तुम्हारा कोई मनोरथ पूरा हुआ क्या अभी तक। आश्चर्यजनक रूप से उसे सबसे यही उत्तर मिला की वो भी इसी उम्मीद से आ रहे हैं की कभी ना कभी उनके मनोरथ पूरे होंगे। अब उस व्यक्ति को लगने लगा की ये भगवान वगैरह झूठ है सिर्फ़ मंदिर के पुजारियों द्वारा मूर्ख बनाके पैसा बनाने का उपक्रम!

ऐसा विचार कर वो क्रोध मे भरने लगा और अपनी पूजन सामग्री वहीं छोड़ के मंदिर के पुजारियों से झगड़ा करने के लिए जाने लगा की तभी उसे एक और व्यक्ति दिखा जो नाचते गाते मंदिर मे जा रहा था और उसकी आखों से भी अश्रुधारा बह रही है। उस व्यक्ति ने भक्ति मे डूबे व्यक्ति से भी अपना प्रश्न पूछना चाहा परंतु वो आनंद मे इतना डूबा था की कुछ देख ही ना पाया और आगे बढ़ गया।

उस व्यक्ति ने ये समझा कि लगता है अभी ये व्यक्ति ने नया नया मंदिर आना शुरू किया है लेकिन इसे भी एकदिन पता चलेगा जब इसकी कोई भी इच्छा पूर्ण नही होगी। अब वो व्यक्ति नित्य आता परंतु मंदिर के द्वार से ही लौट जाता किंतु उस दूसरे व्यक्ति को अवश्य देखता जो प्रतिदिन उसी तरह भक्ति मे डूबकर मंदिर जाता और उसी भाँति भजन कीर्तन करते हुए लौटता।

ये सब देखकर अश्रद्धा से भरे उस व्यक्ति ने मंदिर द्वार तक जाना भी बंद कर दिया अब वो घर मे ही पड़ा रहता और अपने दुखों से अधिक दूसरों को सुखी देख देख के दुखी रहता।

एक दिन उसे सपने मे ऐसा लगा जैसे भगवान कह रहे हों कल उसके प्रश्नो का उत्तर मिलेगा। सुबह उसे लगा की स्वप्न की बात भी कहीं सत्य होती है वो उस बात को भूल गया।

अचानक दिन मे उसे अपने द्वार पर भजन कीर्तन की ध्वनि सुनाई पड़ी उसने द्वार खोला तो उन्ही संत महाराज को देखा जो नित्य आनंद मे भरे मंदिर जाते थे। उसके कुछ पूछने से पहले ही वो संत बोले, बंधु! मुझे भी कल स्वप्न आया की मुझे तुमसे मिलने आना है कहो क्या बात है?

अब उस व्यक्ति को अपने स्वप्न की बात सत्य लगने लगी और उसने तुरंत प्रश्न किया की मेरे दुख तो कुछ कम हुए नही। समस्त जीवन मैने भगवान की पूजा मे लगाया। तब संत बोले और आपने यहाँ तक विचार कर डाला की भगवान होते भी हैं की नही? अब वो व्यक्ति सकुचाया की इन्हे मेरी ये शंका कैसे ज्ञात हुई।

संत ने फिर कहा, बंधु! भगवान तो हैं ही और उनकी सबसे बड़ी कृपा यही है की वो अपनी भक्ति देते हैं बस व्यक्ति एक बार भाव से उनका स्मरण करे।


परंतु आप उस भक्ति का आनंद इसलिए नही उठा पाए क्यूंकी आप सदैव सांसारिक दुखों मे ही डूबे रहे और मंदिर मे जाकर भी अपनी समस्याओं को ही ले जाते रहे स्वयं को मंदिर कभी ले ही नही गये। माला भी जपी तो सांसारिक कष्टों व मलिन मन की।

आप ही बताइए की परमात्मा का आनंद की अनुभूति कैसे हो सकती है आपको? आपके कष्टों मे भी सबसे बड़ा कष्ट आपको दूसरों के सुखों से मिलता रहा जबकि स्वयं आपके जीवन मे तो सांसारिक दुख भी इतने नही थे। क्या आपने कभी सोचा की भगवान को इस तरह का आडंबर देखके कितना कष्ट होता होगा? वो तो नित्य ही सोचते थे की आज आप भाव से भरके आएँगे परंतु आपने उन्हे हमेशा उन्हे निराश किया।

वो तत्पर रहते थे की कभी जो आप उन्हे हृदय से पुकारें, अपने हृदय का द्वार खोलें तो वे आपके जीवन मे प्रविष्ट हों परंतु आपने तो कभी हृदय मे ये माना ही नही की भगवान हैं भी। ये उस परमेश्वर की ही कृपा है जो फिर भी आपकी शंकाओं का समाधान कर रहे हैं और आपके जीवन को परमानंद से युक्त कर रहे हैं।

अब उस व्यक्ति का सिर संत के चरणो मे गिर पड़ा और पहली बार उसके जीवन मे उसे हृदय से रोना आया ये सोचके की प्रभु कितने दयालु हैं। उसे ये बात सोचके भी दुख होने लगा की उसने इन संत के विषय मे भी क्या क्या ग़लत सोचा था। वो बहुत देर तक संत के चरणो को पकड़े रहा और फिर संत के साथ भजन कीर्तन करने लगा और फिर कीर्तन करते करते मंदिर गया।

उस दिन के बाद उसका पूरा जीवन बदल गया।

अब वो नित्य भाव से भरके मंदिर जाने लगा भगवान की भक्ति के आनंद की आँधी मे उसके दुखों के तिनके कब उड़ गये उसे पता ही ना चला अब वो घर मे भी रहता तो उसे यही लगता की वो मंदिर मे ही है।

विशेष ,,,,,

ये कहानी हमे यही सीख देती है की परमात्मा की भक्ति का आधार सांसारिक सोच को नही बनाना चाहिए और भगवान के सामने छल नही करना चाहिए। असली भक्ति का सार यही है की व्यक्ति अपने दुखों मे भी प्रभु की कृपा देखे ना की प्रभु को उलाहना दे क्यूंकी हो सकता है प्रारब्धवश उसे और दुख मिलने थे परंतु प्रभु कृपा से कम हो गये।

भगवान की भक्ति का आनंद ही जीवन का सार है..!!

शनिवार, 12 अक्टूबर 2024

ग्रेगोरियन कैलेंडर का इतिहास

ग्रेगोरियन कैलेंडर का इतिहास


ग्रेगोरियन कैलेंडर में पहले दस महीने होते थे...साल मार्च से शुरू होता था और दिसम्बर पर खत्म होता था। ज़्यादातर महीनों के नाम रोमन देवी देवताओं और राजाओं के नाम पर है।

1-मार्च (मार्स देवता पर);
2-अप्रैल (लैटिन भाषा के अनुसार 'दूसरे' नम्बर के लिये प्रयुक्त होने वाले शब्द के नाम पर);
3-मई (मेया देवी के नाम पर);
4- जून (जूनो देवी के नाम पर);
5- जुलाई (राजा जुलियस सीज़र के नाम पर, उससे पहले ये महीना "क्विंटिलिस" कहलाता था, जिसका मतलब है "पांचवां");
6- अगस्त (राजा ऑगस्टस सीज़र के नाम पर, इससे पहले इस महीने को भी 'सेक्सिटिलिया' यानी "छठा" कहा जाता था);

इसके बाद चारों महीनों के नाम उनके क्रमांक पर थे, यानी सप्तम से सेप्टेंबर, अष्टम से ऑक्टोबर, नवम से नवम्बर और दशम से दिसम्बर।

सूरज की गति के हिसाब से साल 365 दिन का ही होता था (लीप ईयर की गणना बहुत बाद में की गई), लेकिन दिसम्बर के बाद दो महीने रोमन आराम करते थे और ये आराम के दो महीने अनाम थे। 690 ईसा पूर्व में पोम्पिलियस ने सोचा कि आराम के महीने में मनाए जाने वाले उत्सव "फेब्रूआ" पर एक महीने का नाम रख दिया जाए और इस तरह मार्च से पहले आने वाले महीने का नाम फेब्रुवरी यानी फ़रवरी पड़ा। सबसे अंत मे जनवरी का नाम देवता जेनस के नाम पर रखा गया।
अब सवाल उठता है कि इस कैलेंडर का नाम ग्रेगोरियन कैलेंडर क्यों है?
असल मे रोमनों का प्रभाव यूरोप पर सदियों तक रहा और इन्ही सदियों में रोमनों के कैलेंडर को ईसाइयों ने आत्मसात कर लिया था। लेकिन जनवरी को साल का पहला महीना मानने पर ईसाई दुनिया एकमत नही थी और इसका कारण ये था कि जनवरी का नाम रोमन देवता जेनस के नाम पर रखा गया था। जेनस जिसके दो मुह होते हैं और वो आदि को भी देखता है और अंत को भी, इसलिए रोमन कैलेंडर में वो पहला महीना था जो साल के आदि को भी देखता था और अंत को भी। ईसाई चाहते थे कि किसी ईसाई त्योहार से जुड़े महीने को साल का पहला महीना माना जाए लेकिन ऐसा हुआ नही।

एक सोलर ईयर 365 दिन और लगभग 6 घण्टों का होता है, रोमन कैलेंडर में 365 दिन के ऊपर के घण्टों की गणना शुद्ध नही थी, जिससे कुछ सदियों में दिसम्बर और जनवरी गर्मी में पड़ने लग जाते थे। ईसाई दुनिया मे ये चिंता पैदा हुई कि इस कैलेंडर के हिसाब से तो ईस्टर गर्मियों में पड़ने लगेगा। तब 1580 ईसवी में पोप ग्रेगरी ने गणना की इस त्रुटि को ठीक किया और तय किया कि पहला महीना जनवरी को ही माना जाए। पोप ग्रेगरी ने सोलर ईयर की ज़्यादा शुद्ध गणना की, इसलिए ये कैलेंडर उनके नाम से ग्रेगोरियन कैलेंडर कहलाने लगा।
बाद में ग्रेगोरियन कैलेंडर पर काम करने वाले इतालवी वैज्ञानिक अलॉयसियस लिलियस ने एक नई प्रणाली तैयार की, जिसके तहत ये तय किया हर साल केवल 365 दिनों का रखा, और हर चौथा वर्ष 366 दिनों के साथ एक लीप वर्ष होगा।
और जिस तरह रोमन कैलेंडर में साल का अतिरिक्त समय उनके यहां अतिरिक्त माने जाने वाले महीने फरवरी में डाल दिया जाता था, उसी तरह अलॉयसियस ने भी लीप ईयर का अतिरिक्त दिन फरवरी में एडजस्ट कर दिया !!

गुरुवार, 3 अक्टूबर 2024

सुप्रीम कोर्ट ने जेलों में जातिगत भेदभाव को बढ़ावा देने वाले नियमों को खारिज किया

सुप्रीम कोर्ट ने जेलों में जातिगत भेदभाव को बढ़ावा देने वाले नियमों को खारिज किया 


सर्वोच्च न्यायालय ने गुरुवार को स्पष्ट किया कि देश भर की जेलों में जाति आधारित भेदभाव बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और इस मुद्दे पर निगरानी रखने के लिए स्वत: संज्ञान लेते हुए मामला दर्ज किया।

भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने राज्यों को चेतावनी दी कि यदि जेलों में जाति आधारित भेदभाव पाया जाता है तो उन्हें इसके लिए उत्तरदायी ठहराया जाएगा। न्यायालय ने जेल रजिस्ट्रार से कैदियों की जाति का विवरण हटाने का भी आदेश दिया।

न्यायालय ने स्पष्ट किया कि उत्पीड़ित जातियों के कैदियों को केवल इसलिए नीच, अपमानजनक या अमानवीय काम नहीं सौंपा जा सकता क्योंकि वे हाशिए पर की जातियों से संबंधित हैं। इसलिए, इसने कुछ राज्यों के जेल मैनुअल से ऐसी प्रथाओं को लागू करने वाले नियमों को रद्द कर दिया है।

न्यायालय ने कहा कि "हमने माना है कि हाशिए पर पड़े लोगों को सफाई और झाड़ू लगाने का काम और उच्च जाति के लोगों को खाना पकाने का काम सौंपना अनुच्छेद 15 का उल्लंघन है। ऐसे वाक्यांशों का अप्रत्यक्ष उपयोग जो तथाकथित निचली जातियों को लक्षित करते हैं, हमारे संवैधानिक ढांचे के भीतर इस्तेमाल नहीं किए जा सकते हैं, भले ही जाति का स्पष्ट रूप से उल्लेख न किया गया हो, 'नीच' आदि शब्द उसी को लक्षित करते हैं,"।



"ऐसे सभी प्रावधान (जातिगत भेदभाव को बढ़ावा देने वाले) असंवैधानिक माने जाते हैं। सभी राज्यों को निर्णय के अनुसार परिवर्तन करने का निर्देश दिया जाता है। आदतन अपराधियों के संदर्भ आदतन अपराधी विधानों के संदर्भ में होंगे और राज्य जेल मैनुअल में आदतन अपराधियों के ऐसे सभी संदर्भ असंवैधानिक घोषित किए जाते हैं। दोषी या विचाराधीन कैदियों के रजिस्ट्रार में जाति का कॉलम हटा दिया जाएगा। यह न्यायालय जेलों के अंदर भेदभाव का स्वतः संज्ञान लेता है और रजिस्ट्री को निर्देश दिया जाता है कि वह तीन महीने के बाद जेलों के अंदर भेदभाव के संबंध में सूची बनाए और राज्य न्यायालय के समक्ष इस निर्णय के अनुपालन की रिपोर्ट प्रस्तुत करें," न्यायालय ने अपने आगे के आदेश में कहा।

इसके अलावा, न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि विमुक्त जनजातियों के सदस्यों को आदतन अपराध समूहों के सदस्य के रूप में नहीं देखा जा सकता। कोर्ट ने इस बात पर भी गंभीरता से ध्यान दिया कि जेल मैनुअल ऐसे थे जो इस तरह के भेदभाव की पुष्टि कर रहे थे, और कोर्ट ने इस तरह के दृष्टिकोण को गलत बताया।

मंगलवार, 1 अक्टूबर 2024

सुप्रीम कोर्ट का बुलडोजर से तोड़फोड़ पर फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने बुलडोजर से तोड़फोड़ पर फैसला सुरक्षित रखा

सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को केंद्र और राज्य सरकारों को आपराधिक कार्यवाही में अभियुक्तों के घरों या दुकानों को कानून से इतर दंडात्मक उपाय के रूप में बुलडोजर से गिराने से रोकने के निर्देश देने की मांग वाली याचिकाओं पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया। न्यायमूर्ति बीआर गवई और केवी विश्वनाथन की पीठ ने कहा कि आपराधिक गतिविधियों में संदिग्ध लोगों की संपत्तियों को बिना अदालत की अनुमति के ध्वस्त करने से अधिकारियों को रोकने के लिए पहले पारित अंतरिम आदेश मामले के निर्णय तक बढ़ा दिया जाएगा।

आज, न्यायालय ने सुझाव दिया कि प्रस्तावित विध्वंस से प्रभावित होने वाले लोगों की सूचना के लिए एक ऑनलाइन पोर्टल होना चाहिए और की गई कार्रवाई की वीडियोग्राफी होनी चाहिए। इसने यह भी स्पष्ट किया कि शीर्ष अदालत द्वारा जारी किए जाने वाले निर्देश पूरे भारत में लागू होंगे और किसी विशेष समुदाय तक सीमित नहीं होंगे। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यह आदेश उन मामलों पर लागू नहीं होगा जहां अनधिकृत निर्माण को हटाने के लिए इस तरह के विध्वंस की आवश्यकता होती है।

न्यायालय ने कहा, "हम एक धर्मनिरपेक्ष देश हैं और हमारे निर्देश सभी के लिए होंगे, चाहे वे किसी भी धर्म या समुदाय के हों। बेशक, अतिक्रमण के लिए हमने कहा है...अगर यह सार्वजनिक सड़क या फुटपाथ या जल निकाय या रेलवे लाइन क्षेत्र पर है, तो हमने स्पष्ट किया है। अगर सड़क के बीच में कोई धार्मिक संरचना है, चाहे वह गुरुद्वारा हो या दरगाह या मंदिर, यह जनता के आवागमन में बाधा नहीं डाल सकती है।" न्यायालय ने यह भी कहा कि किसी भी निर्माण को ध्वस्त करने के लिए जारी किए गए आदेशों पर न्यायिक निगरानी की आवश्यकता है। "नोटिस के बाद जो होता है, वह जवाब देने के लिए समय देना होता है और फिर...असली मामला आदेश के बाद होता है। नोटिस में बहुत अधिक न्यायिक निगरानी की आवश्यकता नहीं होती है, जहां इसकी आवश्यकता होती है, वह आदेश में सुधार करना होता है। न्यायिक रूप से प्रशिक्षित दिमाग द्वारा एक नज़र," न्यायमूर्ति विश्वनाथन ने कहा। आज की सुनवाई के दौरान सॉलिसिटर जनरल (एसजी) तुषार मेहता उत्तर प्रदेश, गुजरात और मध्य प्रदेश राज्यों के लिए पेश हुए और कहा, "मैं बहुत ही निष्पक्षता से अपने सुझाव दूंगा, यूपी ने वास्तव में रास्ता दिखाया है।" न्यायालय ने शुरू में पूछा कि क्या किसी व्यक्ति के कथित अपराधी होने के आधार पर विध्वंस किया जा सकता है।

"नहीं, बिल्कुल नहीं। बलात्कार या आतंकवाद जैसे जघन्य अपराधों के लिए भी। जैसा कि मेरे स्वामी ने कहा, यह भी नहीं हो सकता कि एक दिन पहले नोटिस जारी किया जाए/चिपकाया जाए, यह पहले से ही होना चाहिए। नगर नियोजन प्राधिकरणों के पास यह प्रावधान है, माननीय कह सकते हैं कि पंजीकृत डाक द्वारा लिखित नोटिस दिया जाए ताकि यह चिपकाने का काम बंद हो जाए और यह प्राप्ति की तारीख से 10 दिन का समय देता है," मेहता ने जवाब में कहा।

इस स्तर पर, न्यायालय ने सुझाव दिया कि ऐसी कोई भी कार्रवाई करने से पहले जनता को सूचित करने के लिए एक ऑनलाइन पोर्टल होना चाहिए। शीर्ष न्यायालय द्वारा जारी सामान्य आदेश के संबंध में, एसजी मेहता ने आगे कहा कि निर्देश "कुछ मामलों में जारी किए गए थे, जिसमें आरोप लगाया गया था कि एक समुदाय को निशाना बनाया जा रहा है"।

न्यायमूर्ति गवई ने टिप्पणी की कि अनधिकृत निर्माण के लिए, कानून के आधार पर कार्रवाई होनी चाहिए और यह धर्म या आस्था पर निर्भर नहीं हो सकती। न्यायालय ने यह भी सुझाव दिया कि एक बार विध्वंस का आदेश पारित होने के बाद, इसे कुछ समय के लिए निष्पादित नहीं किया जा सकता है। हालांकि, मेहता ने पूछा कि क्या इससे नगर निगम के कानूनों में संशोधन होगा और बेदखली पर असर पड़ेगा। इस बिंदु पर, न्यायमूर्ति विश्वनाथन ने कहा,

"बेदखली फिर से की जा सकती है, लेकिन तोड़फोड़ एक अलग स्तर पर है...परिवार को समय देने के लिए। भले ही यह अनधिकृत निर्माण हो, लेकिन लोगों को सड़क पर देखना सुखद दृश्य नहीं है। उन्हें इस तरह देखकर क्या खुशी होती है? अगर उन्हें वैकल्पिक व्यवस्था के लिए समय दिया जाता है तो कुछ भी नहीं खोता है। कुछ मामलों में, नगर निकाय ऐसा करते हैं।"

वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी, सीयू सिंह, संजय हेगड़े, एमआर शमशाद और अधिवक्ता निजाम पाशा सहित अन्य वकीलों ने भी मामले में दलीलें दीं।

रविवार, 29 सितंबर 2024

 सुप्रीम कोर्ट ने एक महिला द्वारा दर्ज 'अनोखे' क्रूरता मामले को किया खारिज


सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में एक महिला के ससुराल वालों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 498ए के तहत दर्ज क्रूरता के मामले को खारिज कर दिया, क्योंकि उसने पाया कि यह आपराधिक शिकायत 'काफी अनोखी' थी, क्योंकि महिला के पति को आरोपी नहीं बनाया गया, जबकि आरोप दहेज की मांग से संबंधित थे। पत्नी और पति दोनों ने पति के माता-पिता के खिलाफ कार्यवाही दायर की थी।


न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा और पंकज मिथल की पीठ ने कहा कि :- 

"ऐसा प्रतीत होता है कि शिकायतकर्ता और उसके पति ने अपीलकर्ताओं के खिलाफ दीवानी और फौजदारी कार्यवाही की शुरुआत आपस में बांट ली है। जबकि पति ने दीवानी मुकदमा दायर किया, उसकी पत्नी, यानी शिकायतकर्ता ने फौजदारी कार्यवाही शुरू करने का विकल्प चुना। दिलचस्प बात यह है कि एक कार्यवाही का दूसरे में कोई संदर्भ नहीं है," न्यायालय ने कहा।

उल्लेखनीय रूप से, न्यायालय ने यह भी कहा कि आरोपपत्र में बिना किसी जांच के केवल महिला के आरोपों को ही दोहराया गया है। न्यायालय ने दोहराया कि आरोपपत्र दाखिल होने के बाद भी आपराधिक कार्यवाही को खारिज करने पर कोई रोक नहीं है।

पीठ ने कहा, "धारा 498ए, 323, 504, 506 के साथ धारा 34 आईपीसी की कोई भी सामग्री साबित नहीं हुई है। हमें इस निष्कर्ष पर पहुंचने में कोई हिचकिचाहट नहीं है कि अगर अपीलकर्ताओं के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही जारी रखने की अनुमति दी जाती है, तो यह कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग और न्याय का उपहास होगा।" इसलिए, पीठ ने बॉम्बे हाईकोर्ट के उस आदेश को खारिज कर दिया, जिसमें आपराधिक कार्यवाही को बरकरार रखा गया था। शीर्ष अदालत ने 2013 की आपराधिक शिकायत के साथ-साथ मामले में आरोपपत्र को भी खारिज कर दिया। इससे पहले मई 2018 में मामले में नोटिस जारी करते हुए कार्यवाही पर रोक लगा दी थी। अपीलकर्ताओं के वकील ने तर्क दिया कि आरोप अस्पष्ट और सर्वव्यापी थे। पीठ ने कहा कि आपराधिक शिकायत 'काफी अनोखी' थी, क्योंकि दहेज की मांग के आरोपों के बावजूद पति को आरोपी नहीं बनाया गया। पीठ ने कहा कि यह मामला आपराधिक प्रक्रिया के दुरुपयोग का एक और उदाहरण है और मामले को लंबा खींचना उचित या न्यायसंगत नहीं होगा। आरोपपत्र पर सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि,

"यह केवल शिकायत के सभी शब्दों को दोहराता है। जांच के बाद भी इसमें कुछ भी नया नहीं है, एफआईआर/शिकायत में लगाए गए आरोप बिल्कुल वही हैं जो आरोपपत्र में हैं। अन्यथा भी, कानून की स्थिति अच्छी तरह से स्थापित है। आरोपपत्र दाखिल होने के बाद भी आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने पर कोई रोक नहीं है।"

इस टिप्पणी के साथ कोर्ट ने अपील को स्वीकार कर लिया और कार्यवाही को बंद करने के आदेश दिए ।

 बच्चों से विरोध प्रदर्शनों कराने वाले अभिभावकों के खिलाफ कार्रवाई करने के आदेश 


केरल उच्च न्यायालय ने हाल ही में अपने एक फैसले में कहा कि छोटे बच्चों को विरोध प्रदर्शनों और आंदोलनों में ले जाने वाले अभिभावकों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए। [सुरेश एवं अन्य बनाम केरल राज्य एवं अन्य]

न्यायमूर्ति पीवी कुन्हीकृष्णन ने स्पष्ट किया कि कानून प्रवर्तन एजेंसियों को ऐसे अभिभावकों के खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए जो ऐसे विरोध प्रदर्शनों पर ध्यान आकर्षित करने के प्रयास में जानबूझकर छोटे बच्चों को विरोध प्रदर्शनों में शामिल करते हैं।

न्यायालय ने तीन वर्षीय बच्चे के माता-पिता की याचिका पर विचार करते हुए यह टिप्पणी की। माता-पिता पर पुलिस ने किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2000 की धारा 23 (बच्चों के साथ क्रूरता) के तहत अपराध के लिए मामला दर्ज किया था। याचिकाकर्ताओं पर अपने तीन वर्षीय बच्चे को तिरुवनंतपुरम में राज्य सचिवालय के बाहर भीषण गर्मी में विरोध प्रदर्शन के लिए ले जाने का आरोप लगाया गया था। वे 2016 में एक अस्पताल द्वारा चिकित्सा लापरवाही के कारण अपने पहले बच्चे को खोने का विरोध कर रहे थे। उन्होंने सरकार से वित्तीय सहायता भी मांगी। अधिकारियों द्वारा वहाँ से चले जाने के अनुरोध के बावजूद, माता-पिता ने विरोध जारी रखा, जिसके कारण मामला दर्ज किया गया। बाद में याचिकाकर्ताओं ने आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने के लिए केरल उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।


"यदि कानून प्रवर्तन प्राधिकरण पाता है कि बच्चों को उनकी कम उम्र में विरोध, सत्याग्रह, धरना आदि के लिए ले जाया जाता है और यदि उनका उद्देश्य उनके विरोध पर ध्यान आकर्षित करना है, तो उन्हें कानून के अनुसार आगे बढ़ने का पूरा अधिकार है। 10 वर्ष से कम आयु का एक छोटा बच्चा विरोध, सत्याग्रह, धरना आदि का उद्देश्य नहीं जान सकता है। उन्हें बचपन में अपने दोस्तों के साथ खेलने दें या स्कूल जाने दें या अपनी इच्छानुसार गाने और नाचने दें। यदि माता-पिता द्वारा बच्चे को ऐसे विरोध, सत्याग्रह, धरना आदि में ले जाने जैसा कोई भी जानबूझकर किया गया कार्य है, तो कानून प्रवर्तन अधिकारियों द्वारा कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए," न्यायालय ने कहा।

न्यायालय ने स्पष्ट किया कि जब छोटे बच्चों को विरोध प्रदर्शन या धरने के लिए ले जाया जाता है, तो वे अत्यधिक परिस्थितियों के संपर्क में आते हैं, जिससे उन्हें भावनात्मक और शारीरिक नुकसान होता है।

"अत्यधिक तापमान और भीड़-भाड़ वाली परिस्थितियों के संपर्क में आने से बच्चे बीमार हो सकते हैं। आंदोलन बच्चे की नियमित दिनचर्या को बाधित कर सकते हैं, जिसमें भोजन, नींद, खेल, शिक्षा आदि शामिल हैं। यदि किसी बच्चे को विरोध प्रदर्शन में ले जाया जाता है, तो विरोध प्रदर्शन में हिंसा की संभावना होती है, जिससे बच्चे को शारीरिक नुकसान होने का खतरा होता है। इसके अलावा, तेज आवाज, भीड़ और संघर्ष बच्चे को भावनात्मक आघात पहुंचा सकते हैं," 24 सितंबर के आदेश में कहा गया।

न्यायालय ने स्वीकार किया कि बच्चे को खोने के आघात ने माता-पिता को विरोध करने के लिए प्रेरित किया था। इसने मामले को रद्द करने के लिए आगे बढ़ते हुए पाया कि याचिकाकर्ताओं द्वारा विरोध प्रदर्शन करते समय उनके बच्चे की "जानबूझकर उपेक्षा" नहीं की गई थी।

हालांकि, न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि इस फैसले को एक मिसाल नहीं माना जाना चाहिए और माता-पिता को छोटे बच्चों को विरोध प्रदर्शन में ले जाने के खिलाफ चेतावनी दी। न्यायालय ने कहा कि इस तरह की हरकतें कानून प्रवर्तन द्वारा सख्त कार्रवाई का कारण बन सकती हैं।


रविवार, 21 जुलाई 2024

डा. हेडगेवार और जंगल सत्याग्रह- संघ और स्वतंत्रता संग्राम

डा. हेडगेवार और जंगल सत्याग्रह


स्वाधीनता आंदोलन में 1930 के ‘नमक सत्याग्रह’ का बड़ा महत्व है। देश भर में यह आंदोलन हुआ था। जहां समुद्र नहीं थे, वहां किसी भी जनविरोधी कानून को तोड़कर लोगों ने सत्याग्रह किया। मध्यभारत तथा महाराष्ट्र आदि में इसे ‘जंगल सत्याग्रह’ कहा गया। चूंकि वहां सरकार बिना अनुमति किसी को जंगल से घास भी नहीं काटने देती थी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डा. हेडगेवार भी 21 जुलाई, 1930 को इसमें सहभागी हुए। 12 जुलाई को एक गुरुदक्षिणा कार्यक्रम में डा. जी ने सत्याग्रह की बात कही तथा वापसी तक डा. परांजपे को सरसंघचालक की जिम्मेदारी सौंपी। 14 जुलाई को वे साथियों सहित रेलगाड़ी से वर्धा गये। अगले दिन वहां श्रीराम मंदिर में स्वागत समारोह तथा शोभायात्रा हुई। क्रमशः पुलगांव, धामड़गांव होते हुए वे ‘पुसद’ पहुंचे; पर वहां सत्याग्रह पहले ही शुरू हो चुका था। अतः संचालकों ने उनसे 21 जुलाई को यवतमाल में सत्याग्रह का शुभारंभ करने को कहा; पर इसमें कई दिन बाकी थे। अतः खाली बैठने की बजाय डा. जी पुसद और आसपास के क्षेत्र में प्रचार और संपर्क करने लगे। एक दिन सुबह जब वे नदी से लौट रहे थे, तो उन्होंने देखा कि एक मुस्लिम गाय काटने जा रहा है। उनके विरोध पर अन्य कसाई भी आ गये। डा. जी ने उन्हें गाय की कीमत देनी चाही; पर वे नहीं माने। बात बढ़ने पर लोगों ने बीचबचाव किया। एक ने कहा कि आप जंगल सत्याग्रह के लिए आये हैं, तो इस चक्कर में न पड़ें। डा. जी ने गोरक्षा को भी जंगल सत्याग्रह जैसा ही महत्वपूर्ण कहा। इतने में पुलिस आकर दोनों पक्षों को थाने ले जाने लगी। डा. जी तो तैयार थे; पर कसाई डर गये। उन्होंने 30 रु. में गाय छोड़ दी। डा. जी ने वह गोरक्षा सभा को दे दी। इससे सब ओर उनका नाम चर्चित हो गया। शाम की सभा में भारी भीड़ के बीच डा. जी ने कहा कि स्वाधीनता के लिए अंग्रेजों के जूते पाॅलिश से लेकर उनके सिर पर जूते मारने जैसे सब काम करने को मैं तत्पर हूं। अगले दिन सब यवतमाल आ गये। कई स्वयंसेवक गणवेश पहनकर सत्याग्रह करना चाहते थे; पर डा. जी ने उन्हें स्वयंसेवक की बजाय आम नागरिक की तरह सत्याग्रह करने को कहा। 21 जुलाई को रणसिंघे के घोष के साथ निकली शोभायात्रा में 4,000 लोग शामिल थे। नगर भवन के मैदान में ध्वजवंदन के बाद जत्थे के नेता डा. जी को चांदी का तथा बाकी को सामान्य हंसिए दिये गये। रुई मंडी होते हुए सत्याग्रही पैदल, साइकिल, बैलगाड़ी तथा मोटर आदि से निर्धारित स्थान (यवतमाल से दस कि.मी दूर लोहारा जंगल) में पहुंचे। पहले से सूचना के कारण पुलिस वहां थी ही। लगभग 10,000 लोग भी सत्याग्रह देखने आये थे। पुलिस वालों ने अनुमति की बात पूछी; पर वे तो सत्याग्रह करने आये थे। अतः वे जंगल में घुसकर घास काटने लगे। इस पर पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर यवतमाल के न्यायालय में प्रस्तुत किया। डा. जी को धारा 117 में छह तथा धारा 379 में तीन (कुल नौ मास) तथा शेष 11 को चार महीने की सजा हुई। शाम को उन्हें रेलगाड़ी से अकोला ले जाया गया। पूरे रास्ते हर स्टेशन पर लोग फल, फूल और मिष्ठान लेकर आते थे। डा. जी वहां कुछ देर भाषण भी देते थे। इस प्रकार रात में वे अकोला तथा अगले दिन जेल में पहुंच गये। अगले दिन 22 जुलाई को नागपुर के स्वयंसेवक शाखा पर एकत्र हुए। वहां डा. जी के साथ गये एक स्वयंसेवक ने पूरी जानकारी दी। सरसंघचालक डा. पराजंपे ने डा. जी द्वारा काटी गयी घास ध्वज के सम्मुख अर्पित की। जेल में अच्छे व्यवहार के कारण डा. जी समय से पूर्व 14 फरवरी, 1931 को ही छोड़ दिये गये। 17 फरवरी को वे नागपुर पहुंचे, जहां उनका भव्य स्वागत हुआ। डा. परांजपे ने उन्हें फिर से सरसंघचालक का पदभार सौंप दिया।