शुक्रवार, 18 सितंबर 2015

डायबीटीज – एक खामोश हत्यारा

डायबीटीज – एक खामोश हत्यारा
1/09/2015 - नई दिल्ली। आज सुबह अखबार के पहले पन्ने पर एक खबर देखी – अमेरिका में 3 साल की बच्ची को डायबीटीज टाईप -2 रोग से पीड़ित पाया गया है। शायद ये बच्ची दुनिया की सबसे कम उम्र की डायबीटीज रोगी है। इस बच्ची का वजन 35 किलो है और वो मोटापे से ग्रसित है। दुनिया भर में डायबीटीज एक खतरनाक रोग बन कर उभरा है। दुनिया की आबादी का 8.3 प्रतिशत हिस्सा या करीब 38.7 करोड़ लोग इस रोग से पीड़ित है। विश्व भर में बच्चों में टाईप-2 डायबीटीज की बीमारी नाटकीय रूप से बढ़ी है और इसकी वजह है मोटापा।
डायबीटीज रोग में मरीज के शरीर में ग्लूकोज की मात्रा बढ़ जाती है और कारण होता है आग्न्याशय (पैनक्रियाज) द्वारा इंसुलिन का उत्सर्जन सही मात्रा में नही करना। मनुष्य द्वारा खाने में जो कार्बोहाइड्रेट लिया जाता है उसे पाचन तंत्र ग्लूकोज में बदलते है और ये इंसुलिन के जरिये खून में मिलकर मनुष्य के शरीर में उर्जा का संचार करता है। जब इंसुलिन का इंसान के शरीर में सही मात्रा में उत्सर्जन नही होता तो खून में ग्लूकोज की मात्रा बढ़ने लगती है और इस अवस्था को डायबीटीज या मधुमेह के नाम से जाना जाता है। डायबीटीज मूलतः दो तरह का होता है- टाइप – 1 और टाइप – 2। डायबीटीज टाइप -1 में मरीज के शरीर में इंसुलीन नही बनता या ना के बराबर बनता है। इसमें मरीज को इंसुलीन पर निर्भर रहना पड़ता है और इंसुलिन नही लेने पर मरीज की मौत भी हो सकती है। इस प्रकार का मधुमेह वैसे तो किसी भी उम्र में हो सकता है परंतु ज्यादातर बच्चे और युवाओं में पाया जाता है। टाइप-2 में मरीज के शरीर में पर्याप्त मात्रा में इंसुलिन संतुलित मात्रा में नही होता है और तकरीबन दुनिया के कुल डायबीटीज मरीजों में 90 प्रतिशत इस तरह के होते है। इस तरह के मरीजों के शरीर में इंसुलिन प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो जाती है या फिर इंसुलिन पर्याप्त मात्रा में नही बन पाता है। ये किसी भी उम्र में हो सकता है लेकिन इसका मोटापा से कोई लेना-देना नही है।
दुनिया भर के विशेषज्ञों का मानना है कि डायबीटीज जीवन-शैली संबंधित रोग है। लेकिन कम उम्र के युवाओं और बच्चों में इस बीमारी का फैलना चिंता का विषय है। टेक्नोलॉजी के बढ़ते प्रभाव की वजह से बच्चे टीवी, कंप्युटर और विडियो गेम का इस्तेमाल ज्यादा करने लगे है। ऐसे में बच्चों की शारीरिक गतिविधियां बहुत हीं कम हो गयी है। खेल के मैदान में बच्चे समय कम से कम दे रहें है और खानपान की शैली भी मौजूदा समय में बहुत ही असंतुलित हो चला है। जंक फूड का ज्यादा इस्तेमाल ऐसी परिस्थिति में कोढ़ में खाज की तरह साबित हो रहा है। इन सारी वजहों से उनमें मोटापा तेजी से बढ़ रहा है। इस कारण युवाओं और बच्चों में टाइप-1 डायबीटीज तेजी से बढ़ रहा है। बच्चों में संतुलित खानपान और शारीरिक क्रियाकलाप को बढ़ावा देना इससे बचने में मदद करेगा।

भारत में 1971 में 1.2 फीसदी लोग डायबीटीज से पीड़ित थे लेकिन सन 2000 आते-आते ये तादाद 12 फीसद हो चुकी थी। एक अनुमान के मुताबिक 2011 में भारत में 6.13 करोड़ लोग इससे पीड़ित हो चुके थे और ये तादाद सन 2030 तक बढ़ कर 10 करोड़ के पार हो जायेगी। साल 2012 में करीब 10 लाख भारतीय इसकी वजह से मौत के शिकार हो चुके है। पश्चिमी देशों की तुलना में भारतीय करीब डायबीटीज होने के उम्र के 10 साल पहले ही इसका शिकार हो जाते है। जीवन शैली में बदलाव जैसे कम शारीरिक मेहनत, सुस्त दिनचर्या, चीनी और वसा का ज्यादा इस्तेमाल इसके प्रमुख कारण है। इन सबके अलावा एक अहम कारण जो निकलकर सामने आयी है वो है भागदौड़ और तनावपूर्ण जिंदगी। महानगर के अलावा ग्रामीण जनसंख्या भी तनाव की चपेट में है। भौतिक सुख और विलासपूर्ण जीवन की लालसा ने मनुष्य को इसके तरफ ढ़केला है। डायबीटीज के वजह से हृदय रोग, तंत्रिका तंत्र की समस्या, किडनी खराब होना और आँखों में रेटिना संबंधित बीमारी आम है। इससे बचाव के लिये जीवन शैली में बदलाव लाना सबसे महत्वपूर्ण है। नियमित जीवनशैली, संतुलित खानपान और जानकारी द्वारा हीं इस महामारी से बचा जा सकता है।

गुरुवार, 17 सितंबर 2015

भारत और पकिस्तान – कितने करीब?

भारत और पकिस्तान – कितने करीब?
17/09/2015- नई दिल्ली। भारत में लोक सभा चुनाव 2014 में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी। मनोनीत् प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा पाकिस्तान समेत सभी पड़ोसी देशों को शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने का न्यौता देना पूरी दुनिया के लिये किसी आश्चर्य से कम नही था। इससे पहले भारत के किसी मनोनीत प्रधानमंत्री ने ऐसा नही किया था। इस निमंत्रण को पड़ोसी देशों के साथ पूर्ववर्ती सरकार की नीति से अलग हटकर संबंध सुधारने की दिशा में एक नये प्रयास के तौर पर देखा गया। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ आये भी और एक उम्मीद जगी कि अब शायद पड़ोसी के साथ संबंध बेहतर होंगे। आज करीब एक 15 महीनों के बाद संबंधो में बदलाव तो दिखा है, लेकिन अपेक्षित और सकारात्मक नही है। कई पहलू है इस बदलाव के और मोदी सरकार ने शायद ये अनुमान पहले लगा लिया था। पिछले सवा साल में भारत-पाक सीमा पर सीजफायर उल्लंघन की धटनायें पहले से ज्यादा हुई है। आतंकवादियों के घुसपैठ की घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है। सीमा पर तनाव घटने के बजाय बढ़ गया है। दोनो देश के तरफ से भड़काऊ बयान लगातार दिये जा रहें है। दोनो देशों के बीच विदेश सचिव और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्तर की बातचीत रद्द की जा चुकी है और भविष्य में कब बातचीत होगी मालूम नही।

पाक प्रधानमंत्री नवाज शरीफ द्वारा मोदी सरकार के शपथ ग्रहण में शामिल होने के निमंत्रण स्वीकारने के बाद ये उम्मीद जगी कि रिश्ते शायद अब सही राह पर चल पड़े है। 27 मई 2014 को मोदी और शरीफ की पहली मुलाकात दिल्ली के हैदराबाद हाउस में हुई। इस मुलाकात के दौरान भारतीय प्रधानमंत्री ने आतंकवाद और 26/11 की घटना के उठाया। मुलाकात से पहले पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने कहा कि वो शांति का संदेश लेकर आये हैं। स्वदेश लौटने के बाद नवाज शरीफ ने नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर कहा कि भारत में हुये बातचीत से वो बेहद संतुष्ट है। इसके बाद पाकिस्तान की तरफ से सीमा पर गोलीबारी, जो पहले छुटपुट होती थी, की घटनाओं में धीरे-धीरे बढ़ोतरी शुरू हुई। सितम्बर में विदेश सचिव स्तर की वार्ता से पहले कश्मिरी अलगाववादियों को पाकिस्तानी दूतावास द्वारा बातचीत के लिये अमंत्रित किया। इसपर कड़ा ऐतराज जताते हुये भारत ने ये वार्ता रद्द कर दी। सितंबर के महीने में ही पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने संयुक्त राष्ट्रसंघ में जब कश्मीर का मुद्दा उठाया तो भारतीय प्रधानमंत्री ने संयुक्त राष्ट्र संघ के सचिव के पास अपना विरोध दर्ज कराया। मोदी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में पड़ोसियों से सभी मुद्दे आपसी बातचीत के जरिये सुलझाने के प्रति अपनी प्रतिबध्दता जताई। लेकिन पहली बार हालात बिगड़ने का अंदाजा हुआ अक्तूबर में जब पाकिस्तान की ओर से की गई गोलीबारी में 5 भारतीय नागरिकों की मौत हुई। भारत सरकार तब फुर्ती दिखाते हुये बीएसएफ से बराबरी से जवाबी कार्रवाई करने का निर्देश जारी किया। इसके बाद नवंबर में काठमांडू में हुये सार्क सम्मेलन में दोनो प्रधानमंत्रियों की आपसी मुलाकात नही हुई। इसके बाद दोनो देशों के बीच कोई अधिकारिक बातचीत नही हुई। सीमा पर गोलीबारी और आतंकी घुसपैठ बदस्तूर जारी रहा। इस साल जुलाई के महीने में रूस के ऊफा में शंघाई कॉपरेशन आर्गनाइजेशन की बैठक के दौरान दोनो प्रधानमंत्रियों की मुलाकात हुई। दोनों बातचीत को फिर से शुरू करने के लिये राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्तर की मीटींग के लिये तैयार भी हुये। लेकिन ऐन मौके पर पाकिस्तान द्वारा फिर पुरानी गलती दुहराई गई। कश्मिरी कट्टरपंथियों और अलगाववादियों को फिर बातचीत से पहले पाकिस्तान द्वारा निमंत्रित किया गया जिसपर भारत ने फिर से ऐतराज जताया। भारत की ओर से कहा गया कि अलगाववादी इस मुद्दे में कोई आधिकारिक हैसियत नही रखते और उनको इसमें शामिल करना शिमला समझौते का उल्लंघन है। भारत की ओर से स्पष्ट किया गया कि बातचीत सिर्फ दोनों पक्षों में हो सकती है और अगर पाकिस्तान इसके लिये तैयार हो तभी वार्ता होगी। नतीजतन पाकिस्तान की ओर से वार्ता रद्द करने की घोषणा की गयी। दरअसल जब भी भारत-पाक का राजनैतिक नेतृत्व संबंधो को सुधारने की ओर अग्रसर होता है पाकिस्तान की सेना अपने को असहज महसूस करने लगती है। तीन आधिकारिक और एक गैर- आधिकारिक युद्ध हारने के बाद पाक-सेना का नेतृत्व इस बात को समझता है कि भारत से सीधे तौर पर पार नही पाया जा सकता। अलगाववादियों को बढ़ावा देना, परोक्ष रूप से आतंकवाद को भारतीय सीमा में भेजकर हमला कराने जैसी स्थितियों से ही भारत को परेशान किया जा सकता है। दूसरी ओर अहम बात यह है कि पाकिस्तानी सेना कभी भी लोकतांत्रिक सरकार का सत्तापलट कर शासन में आ जाती है जिससे बातचीत की पूरी प्रक्रिया बाधित हो जाती है। इस बार भी ऐसी खबरें आ रही है कि शायद पाकिस्तान में जल्द ही कोई बड़ा फेरबदल हो जाये। अब देखना ये होगा कि ऐसी परिस्थिति में भारत सरकार किस तरह का रूख अख्तियार करती है। 

मंगलवार, 15 सितंबर 2015

बिहार चुनाव – परिदृश्य – 2

बिहार चुनाव – परिदृश्य – 2

15/09/2015, नई दिल्ली। चुनाव आयोग द्वारा चुनाव की तारीखों के ऐलान से बिहार में चुनावी समर का श्रीगणेश हो गया है। पांच चरण में होने वाले मतदान से इस बार कई मायनो में नये इबारत गढ़े जायेंगे। अक्तूबर में 12,16 और 28 तारीख और नवंबर में 1 और 5 तारीख को मतदान होंगे। परिणाम 8 नवंबर को घोषित किये जायेंगे। निष्पक्ष चुनाव के लिये चुनाव आयोग ने पुख्ता इंतजाम किये है। केंद्रीय सुरक्षा बलों के तकरीबन 50,000 सुरक्षाकर्मी के उपर चुनाव को हिंसामुक्त रखने की विषम चुनौती है। इसबार इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन पर प्रत्याशियों की तस्वीर भी लगी होगी। पेड न्यूज पर इसबार चुनाव आयोग की खास नज़र होगी और इस बावत निर्देश भी जारी कर दिये गये हैं। इसकी निगरानी के लिये जिला, राज्य और मुख्य निर्वाचन अधिकारी के स्तर पर मीडीया सर्टिफिकेशन एंड मॉनिटरिंग कमिटी का गठन किया गया है।

विकास के मुद्दे और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे के साथ एनडीए बिहार में मैदान में है। वहीं नीतीश कुमार के नेतृत्व में महागठबंधन अपने 10 साल के कामकाज के आधार पर वोट मांग रही है। इस बार के चुनाव में पुराने खिलाड़ी नये राजनीतीक समीकरणों के साथ मैदान में है। लोकसभा चुनाव से पहले एनडीए में शामिल हुये लोक-जनशक्ति पार्टी (लोजपा) और राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी (रालोसपा) के साथ भारतीय जनता पार्टी मैदान में है। जातिय समीकरण के हिसाब से इस गठबंधन को और मजबूत करने के लिये एनडीए में जीतनराम मांझी की हिंदुस्तान आवाम मोर्चा (हम) को शामिल किया गया है। मूसहर जाति के मांझी को अपने खेमे में शामिल कर एनडीए ये उम्मीद कर रही है कि महादलित वोटबैंक का एक बड़ा हिस्सा उसके साथ आ जायेगा। करीब साढ़े चार महीने पहले एकीकृत जनता परिवार (जिसमें मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी, नीतीश कुमार नीत जेडी-यू, लालू यादव की राजद, एच डी देवगौड़ा की जेडी-एस, ओम प्रकाश चौटाला की आईएनएलडी और पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय चंद्रशेखर की नेतृत्वविहीन समाजवादी जनता पार्टी सहित छह पार्टियों शामिल थी) की घोषणा कर एनडीए का मजबूत विकल्प तैयार करने की कवायद शुरू हुई लेकिन ज्यादा दूरी तय नही कर पायी। जनता परिवार से मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी के अलग होने से नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले महागठबंधन को वोट प्रतिशत के हिसाब से भले ही कोई नुकसान पहुँचता नही दिख रहा है लेकिन जनता के बीच एक स्पष्ट संदेश तो चला ही गया कि जनता परिवार और महागठबंधन में सब कुछ ठीक नही है। जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री पद से हटाकर महादलित के अपमान का आरोप झेल रहे नीतीश कुमार के लिये इस वोटबैंक की नाराजगी परेशानी का सबब बनी हुई है। ऐसा लगता है कि लालू यादव के राजनीती का आधार रहे मुस्लिम और यादव वोट बैंक भी उनसे दूरी बनाये हुये है। पिछले लोकसभा चुनाव में लालू यादव की पत्नी राबड़ी देवी और बेटी मीसा भारती की हार से ये स्पष्ट हो जाता है। एक सबसे बड़ा आरोप लालू यादव पर परिवारवाद का लग रहा है। इसके पीछे की वजह लालू यादव द्वारा अपने बेटे को उत्तराधिकारी के तौर पर पेश करना है। असदुद्दीन ओवैसी के बिहार में चुनाव लड़ने का ऐलान इस गठबंधन के लिये खासी मुसीबत का सबब बन कर आयी है। हलांकि एमआईएम सिर्फ सीमांचल क्षेत्र में चुनाव लड़ेगी जहां मुस्लिम वोटरों की तादाद अच्छी-खासी है लेकिन महागठबंधन के सबसे मजबूत वोटबैंक का बंटवारा प्रतिद्वंदी एनडीए को फायदा हीं पहुँचायेगा इसमें कोई दो राय नही है। उधर एनडीए के एक और घटक दल शिवसेना ने भी अकेले चुनाव लडने का ऐलान किया है। बिहार में लगभग नगण्य शिवसेना से एनडीए को कोई नुकसान होगा इसकी संभावना नही है और महाराष्ट्र में बिहारियों का विरोध करने का श्रेय भी उनके खाते में है। सीट बंटवारे के मुद्दे पर अपमान के कारण महागठबंधन से अलग हुये शरद पवार की एनसीपी, राजद से निष्कासित पप्पू यादव और कई वाम दल मिलकर एक नये विपक्ष को गढ़ने की कोशिश में लगें है लेकिन इनकी विश्वसनियता बिहार की जनता के नजर में तो नही है। बहरहाल इन सबके किस्मत का फैसला बिहार की जनता करेगी। दीपावली में किसका बम जोर की आवाज करेगा और किसका फुस्स होगा ये तो समय ही बतायेगी। 

बुधवार, 9 सितंबर 2015

राहुल इंतजार करें...

राहुल इंतजार करें...
09 सितम्बर 2015, नई दिल्ली। कल कांग्रेस वर्किंग कमिटी द्वारा पारित एक प्रस्ताव में सोनिया गांधी का कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर कार्यकाल एक साल के लिये बढ़ा दिया गया। श्रीमति गांधी का कार्यकाल दिसंबर में खत्म हो रहा था। इसके साथ ही राहुल गांधी द्वारा कांग्रेस की कमान संभाले जाने की अटकलों पर फिलहाल विराम लग गया है। देश की सबसे पुरानी पार्टी को अभी भी उसके सबसे लंबे समय तक कार्यरत अध्यक्ष की सेवाओं की जरुरत है। शायद कांग्रेस के युवराज को पार्टी ने अभी इस लायक नही समझा कि उन्हे कमान सौंप दी जाये और उन्हें और परिपक्व होने का मौका दिया जाना चाहिये। पिछले छह महीने के दौरान सोनिया ने जिस तरह से संसद के भीतर और बाहर मोर्चा संभाला है उससे तो ये साफ हो जाती है कि कांग्रेस की डूबती नैया को उबारने का माद्दा अभी  उनमें है। पिछले लोकसभा चुनाव में अब तक के न्यूनतम स्तर पर आने के बाद ये लगने लगा कि कांग्रेस को कोई करिश्माई ताकत ही बचा पायेगी क्योंकि राहुल गांधी में वो बात नजर नहीं आ रही थी। भूमि अधिग्रहण बिल पर जिस तरह से सरकार को कांग्रेस ने संसद में मजबूर कर दिया वो सोनिया गांधी का नेतृत्व ही था। 14 विपक्षी दलों को एकजूट कर संसद की कार्यवाही बजट और मानसून सत्र में ना चलने देने का करिश्मा राहुल के वश की बात नही थी और शायद वे उनके नेतृत्व को स्वीकार भी नही करते। महज 44 सीटों पर सिमट चुकी कांग्रेस के लिये ये दौर किसी मुसीबत से कम नही है लेकिन इस दौर में पार्टी का नेतृत्व पर भरोसा कायम रहे बड़ी बात है। वैसे ये वो कांग्रेस पार्टी नही है जिसमें कई कद्दावर और जमीनीस्तर के नेता हुआ करते थे। अब जो नेता कांग्रेस में मौजूद है उनमे से किसी में इतनी कूव्वत नही है कि नेतृत्व के किसी भी फैसले पर सवाल खड़े कर सकें। आज कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती पार्टी और संगठन को मजबूत करने की है और इसके लिये प्रयास शुरू भी हो गये हैं। राहुल गांधी को इस बात की जिम्मेदारी भी दी गयी है। पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं का मानना है कि राहुल इस काम के जरिये पार्टी पर और पकड़ बना पायेंगे और सोनिया गांधी बिहार जैसे राज्य, जहां पार्टी बदतर हालात में है, में अन्य दलों के साथ मिलकर पार्टी को मजबूती प्रदान करेंगी। पार्टी के भीतर एक और मुद्दा है जो हावी है और वो है वरिष्ठ और पुरानी पीढ़ी के नेता जो सोनिया के साथ सहज महसूस करते है तथा नये नेता जो राहुल के साथ अपने को जोड़कर चलते है। राहुल को अध्यक्ष पद पर बिठाने की जल्दबाजी उन्हे है जो सरकार और पार्टी में राहुल कोटे से पदासीन थे, लेकिन पार्टी के ज्यादातर धड़े सोनिया को ही अध्यक्ष देखना चाहते है। पार्टी में किसी तरह की जोर-आजमाइश से बचने के लिये दोहरे नेतृत्व की नीति पर चलने की कवायद हो रही है। राहुल की ताजपोशी आज नही तो कल होनी तय है लेकिन सारी कवायद इस बात की है कि पार्टी के किसी भी असफलता के लिये उन्हे जिम्मेदार ना ठहराया जाये। बिहार में चुनाव सामने है और वहां कांग्रेस की हालत किसी से छिपी नही है। अगले साल असम, केरल, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और पुड्डुचेरी में चुनाव होने हैं। कांग्रेस असम और केरल में सत्ता में है लेकिन असम में सत्ता वापसी की संभावना क्षीण है। केरल में यूडीएफ जिसका नेतृत्व कांग्रेस कर रही है, भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरी है लेकिन पार्टी को उम्मीद है कि बीजेपी (जो वामदलों के क्षेत्र में तेजी से पैठ बना रही है) के डर से जनता वापस उसे एक और मौका देगी। तमिलनाडू, पश्चिम बंगाल और पुड्डुचेरी में कांग्रेस सत्ता की दौड़ से बाहर है। ऐसे में कांग्रेस नही चाहती कि राहुल के अध्यक्ष बनते हीं इन नाकामियों से सामना हो और सारा श्रेय उनके हीं खाते में आये। शायद ये वो वजह है जिसके कारण राहुल को अगले एक साल तक और इंतजार करना होगा। इंतजार............!

मंगलवार, 8 सितंबर 2015

अंधविश्वास के बहाने

अंधविश्वास के बहाने

भारत एक धार्मिक देश है लेकिन संविधान इसे धर्मनिरपेक्ष कहता है। यहाँ के लोग अपने धर्म को खुल कर स्वीकार करते है और उसमें अपने तरीके से श्रद्धा भी जाहिर करते है। आमतौर पर अधिकांश भारतीय अपने धर्म में आस्था रखते है और समय समय पर इसका प्रदर्शन भी करते है। भारत का संविधान इसकी इजाजत भी देता है। हाल के दिनों में धार्मिक जनगणना जारी की गयी है और ये इस बात का सबूत है की लोग अपने धर्म को लेकर कोई छिपाव इस देश में नहीं करते। हिन्दू बहुल इस देश में धार्मिक अल्पसंख्यक भी अपने धर्म और आस्था को मानने के के लिए स्वतंत्र है। ये इस बात का सबूत है कि भारतीय खासकर हिन्दू धार्मिक तौर पर सहिष्णु है। दुनिया के बाकी हिस्सों में शायद ही इस तरह की परिस्थिति बनती है। लेकिन हाल के दिनों में हिन्दू धर्म के बारे में जिस तरह के दुष्प्रचार समुदाय के भीतर और समुदाय के बाहर से देखने को मिले है वो दुखद है। कुछ लोग स्वार्थवश या कहें अपने को बुद्धिमान साबित करने के लिए ऐसा करते है। लेकिन उन्हें यह नही पता कि वे ऐसा करते हुये दूसरों की भावनाओं को ठेस पहुँचाते है। कुछ उनसे भी बड़े बुद्धिमान उन्हे ऐसा करने से रोकने की हर संभव कोशिश करते है। नतीजा होता है हिंसा।
भारत के संविधान की धारा 19(1) के जरिये सभी को अपनी बात कहने का अधिकार प्राप्त है। लेकिन उसी धारा का दुसरा हिस्सा इस अधिकार पर कुछ वाजिब रोक(Reasonable Restriction) भी लगाता है। इस हिस्से में संविधान अपनी बात कहने के दौरान नैतिकता और सद्भावना का ख्याल रखने की हिदायत भी देता है। लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई देने वाले लोग अपनी बातों को कहने के दौरान अक्सर संविधान की इस नसीहत की उपेक्षा करते पाये जाते है। कोई व्यक्ति धर्म को माने या न माने उसे इस बात के लिये भारतीय कानून से छूट मिली हुई है, लेकिन उसे वो दूसरो पर थोपे संविधान इसकी इजाजत हरगिज नही देता। हाल के दिनों में देश में कुछ इस तरह की धटनायें धटित हुई है जो भर्त्सनिय है। लेकिन ये धटनायें हमें ये सोंचने पर मजबूर करती है कि क्या हम इतने असहिष्णु पूर्वकाल से ही हैं। इसका जवाब है - नहीं।

हिंदु धर्म सनातन धर्म है। इस बारे में मुझे तो कोई संशय नही है। इसमें सबको समाहित करने की शक्ति है। इससे न जाने कितने धर्म और मत अलग हुये लेकिन इसे किंचित् भी फर्क नही पड़ा। हिंदु धर्म में 33 करोड़ देवी-देवताओं की मान्यता है। कहीं वैष्णव, शैव, शाक्त तो कहीं सगुण, निर्गुण विभाजन की कमी नही। साधु-संतो की भी कमी नही। धर्मगुरूओं की भी कमी नही। अपनी-अपनी मान्यताओं का प्रचार-प्रसार करना है। प्रचार के लिये साधन और संसाधन जुटाने है, दुकान तो सजानी पड़ेगी। दुकान सज गयी तो व्यपार तो होगा ही और व्यपार होगा तो धर्म कहाँ? लेकिन सबसे बड़ा सवाल तो ये है कि जो सनातन है, समाहित करने की शक्ति वाला है, उसे, चंद व्यपारी जो संयोगवश धर्म के पुरोधा बन बैठे है, के हाथों की कठपुतली बनने देना चाहिये? इसी बात का और कठपुतली बनने का फायदा उठा कर दुकान सजाने वाले लोग जब अपने व्यापार पर खतरा महसूस करते है तो आक्रामक हो उठते हैं। अपने उपर आने वाले सभी खतरों को निर्मूल करना चाहते है। आज जो लोग इस असहिष्णुता के निशाने पर उन्हे भी इस बात को समझना होगा कि अपनी बात कहने का हक तो उन्हें है, लेकिन इस दौरान उन्हें संविधान और कानून के दायरे में रहकर अपनी बात करनी चाहिये। जनमानस और भावनाओं का ख्याल रखिये। सबके भावनाओं का ख्याल नही कर सकते तो कम से कम बहुसंख्यक की भावनाओं का तो ख्याल रखिये। 

रविवार, 6 सितंबर 2015

सनातन गुरु -श्री कृष्ण

सनातन गुरु -श्री कृष्ण
05/09/2015 : नयी दिल्ली। आज श्री कृष्णा जन्माष्ठमी है और साथ ही शिक्षक दिवस। ये एक विशिष्ट संयोग है कि आज ही के दिन युग स्रष्टा श्री कृष्ण के पावन अवतरण दिवस के मौके पर भारत में शिक्षक दिवस भी मनाया जा रहा है। शिक्षक दिवस महान शिक्षाविद् डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिवस के मौके पर 5 सितम्बर को साल 1962 से मनाया जा रहा है। ये एक सुखद संयोग है कि डॉ राधाकृष्णन बीसवी सदी के धर्म एवं दर्शन के महान विद्वान थे। वे भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति और दूसरे राष्ट्रपति थे। अद्वैत वेदांत के दर्शन को मानने वाले डॉ राधाकृष्णन ने इसकी समकालीन पुनर्व्याख्या की। उनके विचार में शिक्षक को देश का सर्वश्रेष्ठ दिमाग होना चाहिए। लेकिन जो बाजारीकरण समाज में व्याप्त हो चला है, उसमें ये कितना प्रासंगिक है ये विचारणिय बिंदु है। गुरु-शिष्य का भाव समाप्त हो गया है परंपरा तो दूसरी दुनिया की बात होगी। शिक्षक दिवस के मौके पर केवल शिक्षक या गुरु को याद कर अपने जीवन में उनके योगदान को सिर्फ याद कर सकते है लेकिन उचित गुरूदक्षिणा तो उनके दिखाये मार्ग पर चलकर ही दी जा सकती है।
गुरु कौन है? गुरू वो है जो शिष्य के हित के लिए शिष्य को ज्ञान देता है। ये एक परिभाषा हो सकती है लेकिन सभी ग्रंथो का सार भी यही है। ये एक विराट परिकल्पना है जो साधारण तरीके से नही समझी जा सकती। इसके लिए हमें ज्ञान को समझना होगा। ज्ञान एक विशाल अवधारणा है जो बिना गुरू के समझ नही आती। ज्ञान का मतलब केवल विषयी ज्ञान नही होता बल्कि वो समग्र जानकारी है जो एक मनुष्य के जीवन में हर कदम पर काम आती है। ये वो अनुभव है जिसे करने के बाद मनुष्य पूर्णता का अनुभव करता है। वो अनुभव जो अर्जुन को श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र में कराया। श्री कृष्ण ने न केवल अर्जुन को ज्ञान का बोध कराया बल्कि उनके द्वारा पूरे ब्रम्हांड को उस अवधारणा से परिचित कराया। मात्र 700 श्लोकों के माध्यम से जो ज्ञान श्रीबिहारी जी ने सृष्टि को दिया उसे ग्रहण करने योग्य बनने के लिये कई जन्मों की साधना की आवश्यकता होती है। सांख्य योग, कर्म योग और भक्ति योग के माध्यम से जो संदेश श्रीकृष्ण ने दिया है उसे ग्रहण कर मनुष्य ज्ञानवान हो परमगति को प्राप्त कर लेता है। इसीलिये श्रीकृष्ण को जगतगुरु कहा जाता है।
वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम्
देवकीपरमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥ १॥

आतसीपुष्पसङ्काशम् हारनूपुरशोभितम्
रत्नकण्कणकेयूरं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥ २॥

कुटिलालकसंयुक्तं पूर्णचन्द्रनिभाननम्
विलसत्कुण्डलधरं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥ ३॥

मन्दारगन्धसंयुक्तं चारुहासं चतुर्भुजम्
बर्हिपिञ्छावचूडाङ्गं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥ ४॥

उत्फुल्लपद्मपत्राक्षं नीलजीमूतसन्निभम्
यादवानां शिरोरत्नं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥ ५॥

रुक्मिणीकेळिसंयुक्तं पीताम्बरसुशोभितम्
अवाप्ततुलसीगन्धं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥ ६॥

गोपिकानां कुचद्वन्द्व कुङ्कुमाङ्कितवक्षसम्
श्री निकेतं महेष्वासं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥ ७॥

श्रीवत्साङ्कं महोरस्कं वनमालाविराजितम्
शङ्खचक्रधरं देवं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥ ८॥

(श्रीकृष्णाष्टकम स्त्रोत – www.sanskritdocuments.org)

शनिवार, 5 सितंबर 2015

यूँ मुलायम का जाना...

यूँ मुलायम का जाना...
04 /09/2015 : नयी दिल्ली। बिहार चुनाव के ठीक पहले समाजवादी पार्टी द्वारा बिहार विधान सभा चुनाव अकेले लड़ने का ऐलान राजनीतिक गलियारे में किसी अचरज के तौर पर नहीं आई। सीट बंटवारे को लेकर नाराज चल रही मुलायम सिंह यादव की ये पार्टी बिहार की राजनीति में कोई बड़ा दबदबा नहीं रखती। जनता परिवार से सपा का अलग होना मोदी-मैजिक को चुनौती देने के विपक्ष के एकीकृत प्रयासों को धक्के के तौर पर देखा जा रहा है। अब से तक़रीबन चार  महीने पहले बड़े ही धूम-धाम से जनता परिवार के एका की घोषणा की गयी थी। मुलायम सिंह यादव को इस परिवार का सर्वमान्य मुखिया घोषित किया गया था। इस परिवार में समाजवादी विचारधारा के वे दल शामिल हुए थे जो मोदी-मैजिक के कारण अपनी अस्तित्व खोने के कगार पर है। मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी, नीतीश कुमार नीत जेडी-यू, चारा घोटाला में सजायाफ्ता लालू यादव की राजद, एच डी देवगौड़ा की जेडी-एस, शिक्षक भर्ती घोटाला में सजा काट रहे ओम प्रकाश चौटाला की आईएनएलडी और पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय चंद्रशेखर की नेतृत्वविहीन समाजवादी जनता पार्टी सहित इन छह पार्टियों का विलय होना तय हुआ था। लेकिन इसकी घोषणा के बाद ही समाजवादी पार्टी में भारी अंतर्विरोध देखने को मिला और रामगोपाल यादव जैसे कई नेता इस मामले में मुखर दिखाई पड़े। तभी से इस विलय को लेकर असमंजस की स्थिति बनी हुयी थी। परिणति सीट बंटवारे में सिर्फ पांच सीट मिलने को लेकर उपजी नाराजगी के रूप में हुयी। समाजवादी पार्टी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर अकेले बिहार विधान सभा चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया। साल 2010 के बिहार विधान सभा चुनाव में महज 0.55 फीसदी वोट पाने वाली सपा राज्य में कोई बड़ा उलटफेर करेगी ऐसा तो संभव नहीं पर एक सन्देश साफ़ तौर पर जाएगा जो मोदी-विरोधियों के हित में नहीं होगा। कल लालू यादव और शरद यादव सपा प्रमुख को मनाने उनके घर पर पहुंचे और करीब दो घंटों तक चली मुलाकात बेनतीजा रही।
मुलायम सिंह यादव का ये यू-टर्न पहला तो नहीं है लेकिन इसके पीछे कोई कारण है या मजबूरी? पहले हमें मुलायम को समझना होगा कि अपने साथियों को धोखा देने की उनकी ये आदत पुरानी है। सबसे पहले 1989 में जब वीपी सिंह कांग्रेस से अलग हुए तो अपने मित्र चंद्रशेखर को छोड़कर मुलायम उनके साथ हो लिए। इसके बाद साल 1990 में जब वीपी सिंह की सरकार गिरी तो वापस चंद्रशेखर को प्रधानमंत्री के लिए समर्थन देते हुए उनके साथ हो लिए। बसपा के संस्थापक कांशीराम ने 1991 में लोकसभा चुनाव के दौरान मुलायम के समर्थन को स्वीकार किया जबकि वो खुद इटावा से जीतने की स्थिति में थे। फिर 1993 में उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में बीजेपी को सत्ता से दूर रखने के लिए बसपा ने मुलायम सिंह के साथ गठजोड़ कर उन्हें मुख्यमंत्री के तौर पर आगे किया। लेकिन जब 1995 में राजनैतिक वजहों से भाजपा के साथ मिलकर जब मायावती को मुख्यमंत्री बनाने की कोशिश कांशीराम ने की तो मुलायम के आदमियों ने गेस्ट हाउस में मायावती को बंद कर उनके साथ मारपीट किया। 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार गिरने के बाद जब सोनिया गांधी को मुलायम सिंह से पॉजिटिव वाइब मिला और वो सरकार बनाने का दावा पेश करने राष्ट्रपति भवन पहुँच गयी कि मुलायम उनका समर्थन तो करेंगे हीं। चाँद घंटो में पलटी मारते हुए मुलायम ने कहा कि वो किसी विदेशी मूल के नागरिक का प्रधानमंत्री के तौर पर समर्थन नहीं कर सकते। साल 2002 में जब एनडीए ने डॉ ऐपीजे अब्दुल कलाम के नाम राष्ट्रपति के लिए प्रस्तावित किया तो मुलायम सिंह ने मुस्लिम वोटों के मद्देनजर पीपल्स फ्रंट को ठेंगा दिखाया और कलाम के नाम का समर्थन किया। लेफ्ट पार्टियां मुलायम से तक़रीबन सात बार धोखे का शिकार हुयी है और सबसे ताज़ा घटना साल 2008 में यूपीए द्वारा प्रस्तावित न्यूक्लियर डील के मुद्दे पर थर्ड फ्रंट को धता बताते हुए सरकार को समर्थन की है। साल 2012 में जब ममता बनर्जी राष्ट्रपति के तौर पर प्रणब मुख़र्जी के नाम पर सहमत नहीं थी तब मुलायम ने उनके साथ डॉ कलाम , मनमोहन सिंह और सोमनाथ चटर्जी के नाम का प्रस्ताव किया कि इनमे से किसी को राष्ट्रपति बनाया जाना चाहिए। अगले दिन यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी से मुलाकात के बाद मुलायम ने पलटी मारते हुए प्रणब मुख़र्जी के नाम पर अपनी मोहर लगायी और ममता को अपने राजनैतिक अपरिपक्व होने का एहसास कराया।  सबसे नया वाकया इस साल संसद के मानसून सत्र का है जब कांग्रेस के नेतृत्व में सभी विपक्षी दल विदेश मंत्री सुषमा स्वराज समेत अन्य भाजपा नेताओं के इस्तीफे पर अड़े हुए थे। तब मुलायम ने पीछे हटते हुए सरकार की संसद चलने देने की पेशकश का समर्थन किया जिसकी वजह से मजबूरन विपक्ष को संसद में जारी गतिरोध से पीछे हटना पड़ा।            
अब बात करते है जनता परिवार की। पिछले लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के कारण सपा को सिर्फ 5 सीट, जेडीयू को 2 सीट, राजद को 4 सीट, जेडीएस को 2 सीट, आईएनएलडी को 2 सीट आई है। जबकि साल 2009 के लोकसभा चुनाव में इन पार्टियों को क्रमशः 23, 20, 4 , 3 , 0 सीटें मिली थी। इस बात से ये साफ़ हो जाता है की ये सभी दल अपनी अस्तित्व को खतरे में महसूस कर रहे है। दूसरी बात ये है कि मोदी लहर को दिल्ली के अलावा किसी और राज्य में कोई चुनौती नही मिली है और तत्काल में ऐसा करने में कोई सक्षम नहीं दिख रहा है। फिर सभी पुराने कड़वाहटों को भूला कर एकजुट हुए जनता परिवार में ऐसी क्या बात हो गयी कि पहली परीक्षा के पहले हीं कुनबा बिखर गया?
सबसे पहला कारण तो सीट बंटवारे में केवल 5 सीट देने और सीट बंटवारे की प्रक्रिया में शामिल नहीं किया जाना बताया जा रहा है जिससे समाजवादी पार्टी अपने को अपमानित महसूस कर रही थी। दूसरी बात ये निकल कर सामने आ रही है कि नीतीश के कद को छोटा करने और अपने समधी लालू यादव की पार्टी को बिहार विधान सभा के सीट में बड़ा हिस्सा दिलाने के लिए ये किया गया है। तीसरी बात ये निकल कर आ रही है कि लालू-नीतीश के कांग्रेस के साथ गठबंधन से मुलायम चिढ़े हुए है। चौथी बात ये भी बताई जा रही है कि रामगोपाल यादव की दिल्ली में बीजेपी के शीर्ष नेताओं से मुलाकात के दौरान ये समझाया जाना कि बिहार में जब वो कांग्रेस से गठबंधन करेंगे तो क्या उत्तर प्रदेश में अपना मुस्लिम वोट भी शेयर करना पसंद करेंगे? सबसे अंत में जो बात समझ में आती है कि मुलायम सिंह यादव के खिलाफ आय से अधिक सम्पत्ति का मामला अभी भी ख़त्म नहीं हुआ है। पिछले दिनों मुलायम ने ये बयान भी दिया था कि पिछली सरकार ने सीबीआई का दुरूपयोग किया था और मोदी सरकार भी यही कर रही है।

अब वजह चाहे जो भी हो मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक कलाबाजियां कोई नयी बात नहीं रही है। ये अलग बात है कि जनता परिवार इस बार उनका नया शिकार बना है।