विचारधारा की
असहिष्णुता
05/11/2015, नई दिल्ली।
पिछले कुछ दिनों से बाहरी दुनिया को देश की तस्वीर ऐसी दिखाई जा रही है जैसे कि
आपातकाल लागू कर दिया गया है या अराजकता की स्थिति हो गई है। साहित्यकारों,
फिल्मकारों, वैज्ञानिकों और कलाकारों द्वारा सम्मान वापसी करना और देश की कुछ प्रसिद्ध
हस्तियों द्वारा सामाजिक परिस्थिति को खराब बताकर ऐसा किया जा रहा है। ऐसा करने के
पीछे कुछ तो वजह होगी और उन वजहों में कितनी सच्चाई है इसे जानने की कोशिश करना आज
सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
कल एक पत्रिका में प्रसिद्ध
साहित्यकार नामवर सिंह का आलेख पढ़ा जिसमें उन्होंने उन पुरस्कार वापस करने वालों
से कुछ कहा है। उनकी सबसे पहली बात ये है कि हर साहित्यकार की कोई न कोई विचारधारा
होती है। उनकी जो दूसरी बात है वो है कि किसी व्यक्ति का साहित्य अच्छा हो तो
जरूरी नही कि उसकी विचारधारा भी अच्छी हो और इसके उलट किसी की विचारधारा अच्छी हो
तो जरूरी नही कि उसका साहित्य भी अच्छा हो। साहित्य बनाम विचारधारा की बहस तो
साहित्य में हमेशा होती रही है और साहित्य में विचार नहीं साहित्य महत्वपूर्ण होता
है। इन दो बातों से बहुत कुछ स्पष्ट हो जाता है। आइए इन दो मुद्दों पर बात करें।
अब तक जिन्होंने भी पुरस्कार वापिस किया है उनकी भी कोई न कोई विचारधारा है और
उन्हे लगता है कि देश में शायद उनकी विचारधारा का अस्तित्व खतरे में है। अब वों
किस विचारधारा के हैं यह समझने वाली बात है। वो शायद ये बर्दाश्त नही कर पा रहें
है कि उनके विरोधी विचारधारा का इस देश पर शासन हो गया है। विचारों का परस्पर
विरोध इस बार व्यक्तिवादी हो गया है और किसी खास बिंदु पर ठहर गया है। देश जब
वैश्विक परिदृश्य में अपनी छाप छोड़ रहा है ऐसे में कुछ व्यक्तिवादियों द्वारा
विकास के मुद्दे से शायद ध्यान भटकाने भर की कोशिश है। लेकिन ये कोशिश कामयाब नही
होगी।
इस पुरस्कार वापसी के पीछे
इन बुद्धिजीवियों द्वारा देश का अलग-अलग हिस्सों में घटी कुछ घटनाओं का उदाहरण
दिया जा रहा है और वो इन सब के लिए केंद्र की सरकार को दोषी ठहरा रहें है। उन
तथाकथित बुद्धिजीवियों को किंचित् देश के संविधान का ज्ञान कम है। भारत के संविधान
के मुताबिक कानून-व्यवस्था राज्य सरकार की जिम्मेदारी होती है, नाकि केंद्र सरकार
की। अब जरा सोंचिए कि कर्नाटक राज्य में, जहाँ कांग्रेस की सरकार है, एक
साहित्यकार की हत्या होती है और उसके लिए दोषी केंद्र सरकार को माना जाता है। ठीक
उसी तरह उत्तर प्रदेश में एक घटना होती है उसकी जिम्मेदारी भी राज्य की समाजवादी
पार्टी की सरकार के बदले केंद्र सरकार पर मढ़ दी जाती है। कानून व्यवस्था से
संबंधित किसी भी घटना के लिए जिम्मेदार राज्य सरकार है लेकिन तथाकथित
बुद्धिजीवियों ने केंद्र सरकार को दोषी ठहराया है। अब तक किसी ने भी राज्य सरकारों
द्वारा दिए गए पुरस्कार वापस नही किए है बल्कि सारे केंद्र सरकार द्वारा दिए गए
पुरस्कार वापस किए गए है, ये किस तरह का मापदंड है।
साहित्यकारों को पुरस्कार
साहित्य अकादमी देती है। साहित्य अकादमी एक स्वायत्त संस्था है जो अपना अध्यक्ष
खुद चुनती है। ये आम अकादमियों से भिन्न है क्योंकि अन्य अकादमियों में सरकार
अध्यक्ष नियुक्त करती है और इसमें निर्वाचित होता है। साहित्य अकादमी के पहले
अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू थे और वो इसके लिए चुने गए थे नाकि नियुक्त हुए थे। उन्होंने
लेखकों से कहा था कि आप लोगो ने मुझे चुना है क्योंकि मुझे आप लेखक मानते है।
हलांकि उन्होंने अपना कार्यकाल पूरा नही किया और उपाध्यक्ष को बाद में अध्यक्ष
बनवाया। इस तरह यह देश की सबसे बड़ी स्वायत्त और लोकतांत्रिक संस्था है। अब सोंचिए
जिस अकादमी की ऐसी परंपरा रही हो उसके द्वारा दिए गए पुरस्कार को लौटाना क्या उसका
अपमान नही है क्या? अगर
किसी साहित्यकार को किसी तरह की समस्या थी तो इसको साहित्य अकादमी के सामने उठा
सकता था। जिन विषयों पर पुरस्कार वापस किया गया उस पर साहित्य अकादमी की क्या
प्रतिक्रिया आ रही है इसका इंतजार तक नही किया गया। उन लोगों ने अकादमी से ये
पूछने का कष्ट तक नही किया कि अकादमी इस विषय पर क्या सोंचती है। साहित्य अकादमी
ने उन साहित्यकारों का सम्मान किया था, उन्हें भी अकादमी का सम्मान करना चाहिए था,
लेकिन ऐसा नही हुआ। बात घूम फिर कर विचारधारा पर आ जाती है कि देश में परस्पर
विरोधी विचारधारा के लिए भी जगह होनी चाहिए और ये बात सिर्फ एक पक्ष पर लागू नही
होती है।
True sir , need to talk instead of return
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